उर्मिला के अधरों पर क्षणिक मुस्कान तैर उठी। कहा, ‘इसकी क्या आवश्यकता देवर जी? हम साथ ही तो हैं…’
‘तो जब मिलना ही नहीं था तो, इस गहन वन में आई क्यों भाभी?’ शत्रुघ्न की उलझन बढ़ती जा रही थी।
‘हम तो अयोध्या की प्रजा होने के नाते अपने महाराज को वापस ले जाने आए थे देवर जी! अनुज वधु होने के नाते अपने कुल के ज्येष्ठ को यह बताने आए थे कि उनके सारे बच्चे उनके चरणों में श्रद्धा रखते हैं। पर यहां आ कर देखा कि वे हमारी कल्पना से भी अधिक बड़े हैं। उनके अंदर सबके लिए प्रेम ही प्रेम है। उनके अश्रु उन्हें देवता बना गए देवर जी! हम राजा लेने आए थे, देवता ले कर लौटेंगे। और लगे हाथ यह भी लाभ हो गया कि आपके भैया को जी भर के देख भी लिया, अन्यथा मेरा तपस्वी पति मुझे चौदह वर्ष तक कहां मिलना था?’ उर्मिला के मुख पर संतुष्टि के अद्भुत भाव पसरे हुए थे।
‘यह प्रेम का कौन सा रूप है भाभी? मैं न पूर्णत: भैया को समझ पा रहा हूं, न आपको…’ शत्रुघ्न की उलझन कम नहीं हो रही थी।
‘प्रेम को भी कभी धर्म से विमुख नहीं होना चाहिए देवरजी! हाथ से धर्म की डोर छूट जाए तो प्रेम दैहिक आकर्षण भर रह जाता है। ज्येष्ठ के प्रति पूर्ण समर्पण उनका धर्म है और उनके धर्म के प्रति पूर्ण निष्ठा रखना मेरा धर्म है। हम दोनों अपने धर्म पर अडिग रहें, यही हमारे प्रेम का आदर्श है। हमारा जो निर्णय आपको प्रेम के विरुद्ध लग रहा है, वस्तुत: वही हमारे प्रेम की प्रगाढ़ता सिद्ध करता है।’ उर्मिला मुस्कुरा उठी थीं।
शत्रुघ्न उलझ से गए थे। सर झटक कर बोले, ‘मैं आप दोनों को प्रणाम करता हूं। पर मुझे अब भी कुछ समझ नहीं आ रहा।’
उर्मिला ने हंसते हुए चिढ़ाया, ‘आप अभी बच्चे हैं देवर जी! आप प्रेम को नहीं समझ पाएंगे। जाइए, वापसी की व्यवस्था देखिए।’
शत्रुघ्न बोले, ‘मेरे लिए वही ठीक है भाभी… मैं चला।’ वे बाहर निकल गए और भैया भरत के पास जा कर उनके आदेश की प्रतीक्षा करने लगे।
वापसी की बेला आ गई। राम को छोड़ कर कोई जाना नहीं चाहता था, पर राम के बार-बार कहने पर सभी मन मार कर तैयार हो गए थे।
सत्ता के लिए राम और भरत में छिड़े द्वंद में राम की ही चली थी, लेकिन अयोध्या की दृष्टि में भरत विजयी हुए थे। भरत का समर्पण उन्हें बहुत बड़ा बना गया था।
राम की पादुकाओं को माथे पर रखकर भरत चलने को हुए। चलने से पूर्व उन्होंने तेज स्वर में कहा, ‘राजा राम की जय।’
उपस्थित जनसमूह चिल्ला उठा, ‘हमारे भरत की जय…’
उर्मिला ने एक बार पीछे मुड़ कर देखा लक्ष्मण की ओर! आंखों में उस तपस्वी की छवि भर ली और शीघ्रता से मुड़ गईं, ताकि लक्ष्मण की दृष्टि न पड़े…