scriptChhatrapati Shivaji Jayanti : छत्रपति शिवाजी की चरित्र निष्ठा | Chhatrapati Shivaji Jayanti : 19 February 2020 | Patrika News
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Chhatrapati Shivaji Jayanti : छत्रपति शिवाजी की चरित्र निष्ठा

Chhatrapati Shivaji Jayanti : छत्रपति शिवाजी की चरित्र निष्ठा

Feb 19, 2020 / 11:02 am

Shyam

Chhatrapati Shivaji Jayanti : छत्रपति शिवाजी की चरित्र निष्ठा

Chhatrapati Shivaji Jayanti : छत्रपति शिवाजी की चरित्र निष्ठा

उनकी आंखों में रह-रह कर बेचैनी की लहर उठती और विलीन हो जाती। माथे पर उभरती और विलीन होती सिकुड़न चेहरे की गम्भीरता इस बात गवाही दे रहे थे कि वह किसी गहरे सोच में डूबे हैं। साथ ही उन्हें किसी की प्रतीक्षा है और बात थी भी यही। यह सेनापति भामलेकर की प्रतीक्षा कर रहे थे। जो शत्रु-सेना का मुकाबला करने और उसे राज्य की सीमा से दूर तक खदेड़ देने के लिए युद्ध अभियान पर गए थे। उन्हें चिन्ता थी कि कहीं आशा के विपरीत भामलेकर शत्रु सेना के बन्दी न हो गए हो।

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प्रतीक्षा करते हुए काफी देर हो गयी थी। वह महल की अट्टालिका पर ही बैठे थे। तभी उन्होंने तेजी से घोड़ा दौड़ाते चले आ रहे एक घुड़ सवार को देखा। नजदीक आने पर स्पष्ट हुआ कि यह भामलेकर ही थे। उनकी चाल देखकर ही अनुमान लगा लिया कि वह विजयश्री का वरण करके लौटे हैं, पर उनके पीछे दो सैनिक जो डोली लेकर आ रहे थे, उसके बारे में उनको कुछ समझ में नहीं आया। दौड़कर वह नीचे आए और भामलेकर को गले लगा लिया। भामलेकर ने कहा-छत्रपति! आज मुगल सेना दूर तक खदेड़ दी गयी। बेचारा बहलोल जान बचाकर भाग गया। अब हिम्मत नहीं कि मुगल सेना इधर की तरफ मुंह भी कर सके।

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वह तो मैं तुम्हें देखकर ही समझ गया था भामले, छत्रपति ने कहा-और डोले की ओर इशारा करते हुए कहा, यह क्या है? अट्टहास करते हुए भामले ने कहा-इसमें मुसलिम रमणियों में सुन्दरता के लिए प्रसिद्ध बहलोल खाँ की बेगम है महाराज! मुगल सरदार ने हजारों लाखों हिन्दू नारियों सतीत्व लूटा है। उसी का प्रतिशोध लेने के लिए मेरी ओर से आपको यह भेंट हैं।

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भामलेकर के इस कथन को सुनकर एक पल के लिए शिवाजी अवाक् रह गए। ऐसा लगा जैसे किसी ने उनके कानों में ढेर सारा पिघला हुआ शीशा उड़ेल दिया हो। वह तड़प उठे। उन्हें अपने किसी सरदार और सामन्त से ऐसी किसी मूर्खता की आ नहीं थी। कुछ देर ठहरने के पश्चात् वे डोले के पास गए, पर्दा हटाया और बहलोल की बेगम को बाहर आने के लिए कहा। छुई-मुई सी अपने आप में समिटती सिकुड़ती वह बाहर आयी। शिवाजी ने उसे ऊपर से नीचे तक निहारा और कहा-सचमुच तू बड़ी सुन्दर है। अफसोस है कि मैं तेरे पेट से पैदा नहीं हुआ नहीं तो मैं भी तेरे जैसा सुन्दर होता।

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फिर उन्होंने एक अन्य अधिकारी को निर्देश देते हुए कहा कि वह बेगम को बहलोल खाँ के पास ले जाकर सौंप आए। इसके बाद वह सामलेकर की ओर मुड़े और बोले तुम मेरे साथ इतने दिनों तक रहे, पर मुझे पहचान नहीं पाए। वीर उसे नहीं कहते जो अबलाओं पर प्रहार करे, उनका सतीत्व लूटे और धर्मग्रन्थों की होली जलाए। कोई और पतन के गर्त में गिरता हो, तो उसके प्रतिकार का यह अर्थ नहीं कि हम भी उसी की तरह नीचता पर उतर आएं।

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हमें अपनी सांस्कृतिक गरिमा और मर्यादा का ध्यान रखना चाहिए। अपने अभियान का उद्देश्य किसी राज्य का विस्तार नहीं, संस्कृति का विस्तार है। उन भावनाओं, मान्यताओं विचारों का विस्तार करना है, जिससे इनसान उत्पीड़क का उन्मूलन और उत्पीड़ित को संरक्षण दे सके। छत्रपति के इस कथन को सुनकर सभी उपस्थिति सरदारों सामन्तों के नेत्र सजल हो उठे। भामलेकर को अपनी भूल पर पश्चाताप हो रहा था।

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इधर बेगाम को ससम्मान लौटाया हुआ देखकर बहलोल खाँ विस्मित हुए बिना नहीं रहा। वह तो सोच रहा था कि अब उसकी सबसे प्रिय बेगम शिवाजी के हरम की शोभा बन चुकी होगी। पर बेगम ने अपने पति को छत्रपति के बारे में जो कुछ बताया वह जानकर तथा अधिकारी के हाथों भेजा गया पत्र पढ़कर बहलोल खाँ जैसा क्रूर सेनापति पिघल उठा। पत्र में शिवाजी ने अपने सेनानायक की गलती के लिये क्षमा माँगी थी। इस पत्र को देखकर स्वयं को बहुत महान, वीर और पराक्रमी सामने वाला बहलोल खाँ अपनी ही नजर में शिवाजी के सामने बहुत छोटा दिखायी देने लगा। उसने निश्चय किया कि इस फरिश्ते को देखकर ही दिल्ली लौटूंगा।

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इसके लिए आग्रह भेजा गया। बहलोल खाँ और शिवाजी के मिलने का स्थान निश्चित हुआ। नियत तिथि समय व स्थान पर शिवाजी बहलोल खाँ के पहले ही पहुँच गये। बहलोल खाँ जब वहाँ पहुँचा तो पश्चाताप आत्मग्लानि के साथ-साथ शिवाजी के व्यक्तित्व के प्रति श्रद्धाभाव से इतना अभिभूत था कि देखते ही उनके पैरों में झुक गया- “माफ कर दो मुझे मेरे फरिश्ते। बेगुनाहों का खून मेरे सर चढ़कर बोलेगा और मैं उनकी आह से जला करूंगा। उस समय तेरी सूरत की याद मुझे थोड़ी सी ठंडक पहुंचाएगी। ‘जो हुआ सो हुआ’ अब आगे का होश करो एक पराजित और श्रद्धावनत सेनापति को गले लगाते हुए छत्रपति शिवाजी ने कहा।

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