मेवाड़ का खाना भी किसी विरासत से कम नहीं, सहेजना होगा इस परंपरा को
विश्व विरासत दिवस विशेष, यदि हमारा खाना गुणकारी व सेहतमंद होगा तो हम ऐसे वायरस से निपटने के लिए तैयार होंगे। ऐसे में पुराने लोग जिस सात्विक भोजन की सीख दे गए थे, वहीं भोजन आज फिर से याद आने लगा है।
उदयपुर. मेवाड़ के इतिहास की जब बात की जाती है तो इसकी ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, प्राकृतिक विरासतों के बारे में अक्सर चर्चा की जाती है, लेकिन बहुत कम बार ऐसा हुआ है जब यहां की खाद्य विरासत के बारे में भी चर्चा हो। मेवाड़ के पारंपरिक भोजन, लुप्त हो चुके व्यंजनों, राजमहलों में बनाए जाने वाले व्यंजनों के बारे में यदि बात की जाए तो इसकी अलग ही फे हरिस्त है। आज इन खाद्य धरोहरों को बचाने की आवश्यकता है। मोहनलाल सुखाडिय़ा विवि के इतिहास विभाग के सहायक आचार्य डॉ. पीयूष भादविया ने ‘फू ड हैरिटेज ऑफ राजस्थान’ पुस्तक का संपादन किया है, इसमें राजस्थान और विशेषकर मेवाड़ में प्रयुक्त की जाने वाली भोजन सामग्री, उसका इतिहास, लुप्त रेसिपी, विरासत, पोषण, आदि की विविध जानकारी उपलब्ध कराई है।
लुप्त हो गए कई पारंपरिक व्यंजन दाल-बाटी-चूरमा राजस्थान प्रदेश का प्रमुख परम्परागत भोजन है, जिसका प्रारम्भ युद्धकाल की आवश्यकता के कारण हुआ। विभिन्न व्यंजन, जैसे लहसूनी खीर, बोकनिया पत्ते के व्यंजन, कमल जड़ की सब्जी, सहजन की सब्जी, आलणी भाजी, कलंजी का रायता, सागरी का रायता, मक्की के पानिये, सिलबट्टे की चटनी, बस्तिसा, शाही अंजीरी मटन, केलडी पर बनी रोटी, खसखस की रोटी, बुरा रोटी, मांडा रोटी, कोरमा पूड़ी आदि परम्परागत व्यंजन लुप्त हो रहे हैं। राजस्थान में ऋतुओं के अनुसार भोजन बनाने की परम्परा है। जैसे, सर्दी में मैथी की आलणी, अमल की आलणी, हल्दी की साग, चील का साग, शलगम का साग, कलीजड़ा का साग, धमका, वालोला एवं हरजाणो की फ लियों का साग आदि। इसी प्रकार गर्मी में गुन्दा का साग, केर-सागरी का साग का प्रचलन है। वर्षा ऋ तु में किकोड़ा, कांचरी, चवला की फ ली, चकरी, करेला आदि के साग का प्रचलन है। यह विरासत ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी जीवित है।
महाराणा प्रताप के कंदमूल का खाद्य पोषक तत्वों से था भरपूर मेवाड़ में महाराणा प्रताप के काल में वीरों ने कंद-मूल और अपामार्ग के बीजों की रोटियां खाई थी, वो पोषक होने के साथ लम्बे समय तक भूख को नियंत्रित करती थी। रागी, कुरी, हमलाई, कोंदो, कागंनी, चीना, लोयरा, सहजन आदि से बनी सामग्री भी खाई जाती थी। इनमें प्रचुर मात्रा में कार्बोहाइड्रेट, प्रोटिन, विटामिन, आयरन एवं अन्य खनिज होते हैं। दक्षिण राजस्थान में कई ऐसी वनस्पतियां हैं, जिनका सेवन होता था, लेकिन अब यह ज्ञान भुलाया जा चुका है।
इनका कहना है. पूर्वजों के द्वारा हमें प्रदत्त भोजन के ज्ञान को जानना, अपनाना एवं संरक्षित करना आवश्यक है। उनकी जानकारी आज के कोरोना काल एवं भविष्य में आवश्यक है। उनसे कई बीमारियों का निदान संभव है। प्रकृति के इन अद्भुत उत्पादों, उनसे निर्मित भोजन सामग्री की विरासत को संरक्षित करना आवश्यक है।
डॉ. पीयूष भादविया, सहायक आचार्य, इतिहास विभाग, सुविवि
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