भारत में एक से चौदह वर्ष आयु के बच्चे प्रमुख रूप से गोलकृमि या राउंड वर्म, एस्केरिस लुम्ब्रिकोइडस, कशाकृमि या व्हिपवर्म, ट्राईक्यूरिस ट्राईक्यूरा और दो हुककृमि एंकिलोस्टोमा डूओडिनेल व निकेटर अमेरिकैनस से संक्रमित रहते हैं। ये सभी कृमि प्राणी जगत के निमैटोडा संघ के हेल्मिन्थ परजीवी हैं। चिकित्सा विज्ञान में ये कृमि सोइल ट्रांसमिटेड हेल्मिन्थ्स, एसटीएच नाम से जाने जाते हैं। ये भोजन लुटेरों के नाम से भी प्रसिद्ध है। यद्यपि इनके संक्रमण से बच्चे मरते नहीं हैं, परन्तु इनका भारी संक्रमण होने पर बच्चे मर भी सकते हैं।
इन कृर्मियों में जबर्दस्त प्रजनन क्षमता विकसित होने से एक दिन में हजारों-लाखों की संख्या में अंडे दे देते हैं। इनका भारी संक्रमण होने पर ये बच्चों के गुदा द्वार से निकलते रहते हैं। कभी कभी ये मुंह व नाक से बाहर निकल आते हैं। आंत में पड़े भोजन को लगातार खाने से बच्चों में लौह तत्व व विटामिन ए की भारी कमी होने से बच्चों की शारीरिक व मानसिक विकास पर गहरा असर पड़ता है।
– खुले में शौच करना इसका प्रमुख कारण है।
– साफ पानी और साबुन से समय-समय पर हाथ नहीं धोना
– बिना जूते-चप्पल पहने खुले में शौच करने से
– नाखूनों को नियमित नहीं काटने
– खाना खाने के पूर्व व शौच के बाद हाथों को साबुन से नहीं धोने
– गंदे पानी से उगाई सब्जियों को खाने से
– सब्जियों को धोकर न खाने से
– लगातार मिटी में खेलने से
डॉ शांतिलाल चौबीसा, प्राणीशास्त्री एवं परजीवी विज्ञानी