रीवा के महाराजाओं द्वारा राजसिंहासन पर नहीं बैठने के पीछे जो कथा प्रचलन में है उस पर महाराजा मार्तण्ड सिंह जूदेव चेरिटेबल ट्रस्ट की सीइओ अल्का तिवारी बताती हंै कि विंध्य का जो हिस्सा है इसे भगवान श्रीराम ने अपने छोटे भाई लक्ष्मण जी को सौंपा था। अपने शासनकाल में कभी लक्ष्मण भी राजसिंहासन पर नहीं बैठे। वह भी बतौर प्रशासक राज्य का संचालन करते रहे। 13वीं शताब्दी में बाघेल राजवंश ने बांधवगढ़ में राजधानी बनाई तो वहां पर भी गद्दी पर कोई महाराजा नहीं बैठे। यह प्रक्रिया सन 1617 में रीवा को राजधानी बनाए जाने के बाद से लगातार चल रही है।
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तीन रूपों में राजाधिराज की पूजा
राजघराने की गद्दी पर राजाधिराज की तीन रूपों में पूजा की जाती है। एक भगवान विष्णु, दूसरा भगवान श्रीराम और सीता, तीसरा श्रीराम-लक्ष्मण-सीता की पूजा की जाती है। रीवा राजघराने द्वारा यह पूजा 403 वर्षों से अब तक की जा रही है। राजघराने के प्रमुख पुष्पराज सिंह एवं उनके विधायक पुत्र दिव्यराज सिंह अब पूजा कर रहे हैं। हर साल दशहरे के दिन राजधिराज की गद्दी पूजन के बाद चल समारोह शहर में निकलता है। रावणवध स्थल तक यह यात्रा जाती है। कहा जाता है कि मैसूर और रीवा दो ही स्थानों का दशहरा पहले चर्चित था, जिसे देखने दूसरे राज्य से लोग पहुंचते थे।
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धार्मिक आयोजनों के लिए लक्ष्मणबाग की स्थापना
रीवा को राजधानी बनाने के बाद सन 1618 में लक्ष्मणबाग का कार्य भी प्रारंभ कर दिया गया था। यहां पर पूजा पाठ के लिए चारोंधाम के देवताओं के मंदिर बनाए गए। कहा जाता है कि भगवान श्रीराम के छोटेभाई लक्ष्मण के हिस्से में यह राज्य मिला था, इसलिए लक्ष्मण की भी यहां पूजा होती रही है। उनके प्रति आस्था प्रकट करने के लिए ही लक्ष्मणबाग का निर्माण कराया गया। जहां पर सभी प्रमुख देवताओं के मंदिर स्थापित किए गए। वर्तमान में यह कलेक्टर की अध्यक्षता वाले ट्रस्ट की देखरेख में संचालित हो रहा है।
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