यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन:।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।
अर्थ- गीता के इस श्लोक से तात्पर्य यह है कि एक उत्तम पुरुष जितने भी श्रेष्ठ कार्य करता है उसकी तरह ही अन्य आम लोग आचरण करते हैं। श्रेष्ठ पुरुष जैसे उदाहरण प्रस्तुत करते हैं, उसे देख सम्पूर्ण मानव समाज उन्हीं बातों का पालन करने लगता है।
चिन्तया जायते दुःखं नान्यथेहेति निश्चयी।
तया हीनः सुखी शान्तः सर्वत्र गलितस्पृहः।।
अर्थ- गीता के इस श्लोक द्वारा समझाया गया है कि चिंता करने से ही दुख का जन्म होता है, किसी दूसरे कारण से नहीं। इसलिए जो मनुष्य इस चिंता को छोड़ देता है वह सभी जगह सुखी, शांत रहता है और अवगुणों से मुक्त हो जाता है।
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।।
अर्थ- इस श्लोक का तात्पर्य यह है कि मनुष्य का अधिकार केवल उसके कर्म पर ही होता है, लेकिन आप कर्म के फल को नहीं जान सकते। इसलिए श्रीकृष्ण ने कहा है कि कर्म करते रहो फल की चिंता मत करो। साथ ही अकर्मण्य भी मत बनो।
यत्साङ्ख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्यौगैरपि गम्यते।
एकं साङ्ख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति।।
अर्थ- गीता के इस श्लोक से यह समझाया गया है कि सांख्ययोगियों द्वारा जिस ज्ञान की प्राप्ति की जाती है, वही ज्ञान कर्मयोगियों के द्वारा भी प्राप्त किया जाता है। इसलिए जो व्यक्ति सांख्य और कर्म योग को एक समान देखता है, वही यथार्थ है।
(डिस्क्लेमर: इस लेख में दी गई सूचनाएं सिर्फ मान्यताओं और जानकारियों पर आधारित है। patrika.com इनकी पुष्टि नहीं करता है। किसी भी जानकारी या मान्यता को अमल में लाने से पहले संबंधित विशेषज्ञ की सलाह ले लें।)