वह सर्वज्ञ है, स्वतंत्र है और गुणरहित है
ब्रह्म, सत, चित्त और आनन्द स्वरूप है। वह सर्व व्यापक है, माया रहित और सर्वशक्तिमान है। वह सर्वज्ञ है, स्वतंत्र है और गुणरहित है। उसके अनन्त अवयव हैं, अनन्त रूप हैं, वह अविभक्त और अनादि है। वह निर्गुण होते हुए भी सगुण है। वही जगत का कर्त्ता और नियन्ता है। उसके प्रायः शरीर और गुण नहीं है। उसमें आविर्भाव और तिरोभाव की शक्ति है। इसी शक्ति से वह एक में अनेक और अनेक में एक होता रहता है। वह अपने स्वरूप में और अपनी रचित लीला में नित्य मगन रहता है।
अष्टयाम सेवा के आठ सोपान है
जीव और जगत ब्रह्म का अंग है, यह अटल सत्य है। यह सेवा दो प्रकार की है– नित्य और नैमेत्तिक। नित्य सेवा, प्रतिदिन सुबह से लेकर रात्रि तक किसी न किसी रूप में चलती रहती है। इसे अष्टयाम सेवा कहते हैं। नैमेत्तिक सेवा वर्षोंत्सवों के रूप में की जाती है। वर्ष भर में होने वाले पर्वों और उत्सवों के अनुसार विशेष सेवा होती है। अष्टयाम सेवा के आठ सोपान हैं। प्रातःकालीन मंगला, श्रृंगार, गौचारण, राजभोग, उत्थापन, संध्याभोग, संध्या आरती और रात्रिकालीन शयन सेवा ये आठ प्रकार है। ईश्वर भक्ति द्वारा जीव कृपा का अधिकारी होता है और ईश्वर कृपा से ही उसे ऐश्वर्य, वीर्य, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य, ये छह गुण प्राप्त होते हैं।
अज्ञान या भ्रम
जीव दो प्रकार के होते हैं – एक संसारी जो इस भव चक्र में फंसे हैं। दूसरे मुक्त जो इस चक्र से मुक्त हैं। संसारी अपने इस अज्ञान के कारण दुःख के शिकार हैं। उनका शरीर और इन्द्रियां ही उनकी आत्मा हैं। अज्ञान वश वे इस स्थिति में रहते हैं। मुक्त जीव वे हैं जो अज्ञान या भ्रम को त्याग कर जीवन मुक्त हो चुके हैं। वे भगवत लोक के अधिकारी हैं, वे सत्संगति से भक्ति के विभिन्न मार्गों का अनुशरण करने वाले होते हैं।