हालांकि, अब तक के राज्य के इतिहास पर नजर डालें तो भाजपा की उम्मीद पर पानी फिरता दिख रहा है, क्योंकि इतिहास कुछ और ही कहानी बयां कर रहा है। दरअसल, अभी तक राज्य में अंतरिम सरकार से जब भी मुख्यमंत्री बदला गया, तो सत्ता भी बदली है। 9 नवंबर 2000 को नित्यानंद स्वामी राज्य के पहले मुख्यमंत्री बने। वर्ष 2002 में राज्य में पहला विधानसभा चुनाव होना था, मगर इससे पहले भाजपा को लगने लगा कि यदि स्वामी के नेतृत्व में चुनाव में गए तो सत्ता में वापसी संभव नहीं है। तब आलाकमान ने स्वामी का कार्यकाल एक साल पूरा होने से पहले ही यानी सिर्फ 354 दिन में ही नित्यानंद स्वामी को मुख्यमंत्री पद से हटाकर सरकार की कमान भगत सिंह कोश्यारी को सौंप दी। मगर पार्टी आलाकमान की उम्मीद को कोश्यारी पूरा नहीं कर पाए। सिर्फ 123 दिन तक सत्ता संभालने के बाद चुनाव में उतरे कोश्यारी पार्टी को जीत नहीं दिला सके। भाजपा चुनाव में कांग्रेस से हार गई थी।
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कांग्रेस हारी और भाजपा ने सत्ता में वापसी की इसके बाद दूसरा विधानसभा चुनाव आया। कांग्रेस हारी और भाजपा ने सत्ता में वापसी की। बीसी खंडूरी को राज्य का मुख्यमंत्री बनाया गया। मगर खंडूरी के खिलाफ पार्टी में विरोध के सुर उठने लगे। 839 दिन का कार्यकाल पूरा करने के बाद खंडूरी को पद हटा दिया गया। उनकी जगह रमेश पोखरियाल निशंक को राज्य की कमान सौंपी गई। तीसरा विधानसभा चुनाव आने से पहले ही निशंक विवादों में घिर गए। भाजपा ने फिर खंडूरी को सीएम बनाया और उन्हीं के नेतृत्व में पार्टी चुनाव में उतरी। चुनाव में जो नारा चर्चित हुआ वह था- खंडूरी है जरूरी। मगर यह नारा काम नहीं आया और भाजपा फिर चुनाव हार गई।
कांग्रेस को लगा कि विजय बहुगुणा से लोग नाराज होंगे वर्ष 2012 में तीसरा विधानसभा चुनाव हुआ और कांग्रेस सत्ता में लौटी। राज्य की बागडोर विजय बहुगुणा को सौंपी गई। बहुगुणा 690 दिन तक सीएम रहे। उनके कार्यकाल में ही वर्ष 2013 में आपदा आई, जिसमें हजारों लोगों की जान गई और सैंकड़ों लोग लापता हो गए। कांग्रेस को लगा कि विजय बहुगुणा से लोग नाराज होंगे और उनके नेतृत्व में चुनाव में गए तो फायदा कम नुकसान ज्यादा होगा। इसके बाद बहुगुणा को हटाकर हरीश रावत को राज्य का मुख्यमंत्री बना दिया गया, लेकिन रावत कांग्रेस को जीत नहीं दिला सके और वर्ष 2017 के चुनाव में कांग्रेस बुरी तरह हार गई। हरीश रावत खुद दो विधानसभा सीट से मैदान में उतरे थे, मगर दोनों जगह से वह चुनाव हार गए। कांग्रेस के 11 विधायक ही विधानसभा तक पहुंच सके।
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रावत से न तो पार्टी के लोग खुश थे और न ही राज्य की जनता चौथे विधानसभा चुनाव में भाजपा बहुमत के साथ सत्ता में आई और पार्टी ने त्रिवेंद्र सिंह रावत को मुख्यमंत्री बनाया। हालांकि, कहा जाता है कि रावत से न तो पार्टी के लोग खुश थे और न ही राज्य की जनता। लिहाजा, पार्टी को लगा कि उनके नेतृत्व में चुनाव में गए, तो हार पक्की है। 1453 दिन के कार्यकाल के बाद उन्हें कुर्सी से हटा दिया गया और बीते मार्च में तीरथ सिंह रावत को कमान दी गई। लेकिन तीरथ सिंह रावत सिर्फ चार महीने में सत्ता से बेदखल कर दिए गए। वह राज्य में अब तक सबसे कम समय तक यानी केवल 116 दिन मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे। अब जबकि पुष्कर सिंह धामी को कमान सौंपी गई है, तो यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या वह चेहरा बदलकर सत्ता गंवाने की परंपरा तोड़ पाते हैं या नहीं।