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अदालतों में ‘प्ले सेफ’ की धारणा पर सुप्रीम कोर्ट का वाजिब सवाल

सुप्रीम कोर्ट पिछले दशकों में अनेक बार यह निर्धारित कर चुका है कि गिरफ्तारी की शक्ति होने मात्र से किसी को गिरफ्तार नहीं किया जाए। व्यक्ति को पहले उसकी गिरफ्तारी के आधार बताए जाएं। मशीनी अंदाज में रिमांड देने और जमानत खारिज करने से भी बचा जाना चाहिए।

जयपुरAug 30, 2024 / 09:00 pm

Gyan Chand Patni

हेमंत नाहटा अधिवक्ता, राजस्थान उच्च न्यायालय
देश की अदालतों में लम्बित मुकदमों का अम्बार बरसों पुरानी समस्या है। यह तथ्य सचमुच चौंकाता है कि देश में साढ़े चार करोड़ लम्बित मुकदमों में से डेढ़ करोड़ तो पिछले एक साल में ही दर्ज हुए हैं। वजह बात-बात में लोगों का कोर्ट-कचहरी पहुंचना भी है। कहीं लोगों का ईमान डगमगाता दिखता है तो कहीं विद्वेष और हिंसा के बढ़ते दौर के कारण मुकदमेबाजी बढ़ती दिखाई दे रही है। आधुनिकता की दौड़ में नैतिक मूल्य और सामाजिक वर्जनाएं कहीं पीछे छूट गई हैं। इन तमाम तथ्यों के बीच बड़ी बात यह भी है कि हमारे यहां न्याय प्रक्रिया ही इतनी लम्बी खिंचती चली जाती है कि कोर्ट के चक्कर लगाना लोगों की मजबूरी बन जाती है। मुकदमों के इस अम्बार को कम करने की दिशा में कदम जरूर उठते हैं, लेकिन अपेक्षा के अनुरूप तेजी इस दिशा में नजर नहीं आती। अधीनस्थ अदालतों में तो हालत ज्यादा विकट हैं। संसाधनों की कमी के बीच फाइलों के अम्बार के बीच बैठे पीठासीन अधिकारी, अपना नम्बर आने की उम्मीद लगाए बैठे वकील, पक्षकार व पुलिसकर्मी सब जैसे-तैसे अदालत कक्ष में अपने लिए जगह बनाते दिखते हैं। गवाहों से क्रास एग्जामिनेशन से लेकर जमानत आवेदनों पर भी बहस साथ-साथ होती है। एक तरह से समूूचा काम यंत्रवत होता नजर आता है।
सुप्रीम कोर्ट पिछले दशकों में अनेक बार यह निर्धारित कर चुका है कि गिरफ्तारी की शक्ति होने मात्र से किसी को गिरफ्तार नहीं किया जाए। व्यक्ति को पहले उसकी गिरफ्तारी के आधार बताए जाएं। मशीनी अंदाज में रिमांड देने और जमानत खारिज करने से भी बचा जाना चाहिए। सीधे तौर पर यह भी कि यदि साक्ष्य पर्याप्त नहीं हों तो किसी को ट्रायल का सामना करने के लिए मजबूर नहीं किया जाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट प्रारंभिक स्तर पर दावा खारिज करने की परिस्थितियां, दावे में देरी पर माफी, प्रसंज्ञान प्रक्रिया आदि को लेकर कई बार कह चुका है। यह भी कि कैसे लिया जाएगा और आरोप कब तय नहीं किए जाएंगे। इन सबके बावजूद इन निर्देशों की पालना नहीं होने के प्रकरण बहुसंख्या में हैं। सवाल यह है कि आखिर शीर्ष कोर्ट और उच्च न्यायालयों के निर्णय और दिशा-निर्देश अधीनस्थ अदालतों में बाध्यकारी रूप से लागू क्यों नहीं हो पा रहे।
आखिर क्यों अदालतों में मुकदमे लम्बित होते जा रहे हैं। प्रश्न, अधीनस्थ अदालतों में पीठासीन अधिकारियों के प्रशिक्षण से भी जुड़ा है। कई बार निर्णय लेने में ‘प्ले सेफ’ की प्रवृत्ति भी दिखती है। सुप्रीम कोर्ट भी कह चुका है कि ऐसा प्रतीत होता है कि ट्रायल कोर्ट और हाईकोर्ट में जमानत को लेकर ‘प्ले सेफ’ की धारणा पर विश्वास जताया जा रहा है। समय के साथ अधीनस्थ अदालतें यह भूल चुकी हैं कि मात्र दंडित करने के इरादे से जमानत से इनकार नहीं करना चाहिए। केवल ट्रायल के समय आरोपी की उपस्थिति सुनिश्चित करने के इरादे से ही जमानत से मनाही की जानी चाहिए। ऐसी स्थिति में विचाराधीन कैदियों से भरी जेलों को खाली करने तथा स्तरीय-त्वरित न्याय की भावना अंजाम देने की कवायद बेमानी है। जावेद गुलाम शेख मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सरकार के पास आरोपी की त्वरित ट्रायल का उपाय नहीं है तो उसे जमानत का विरोध भी नहीं करना चाहिए। इन सबके बावजूद पता नहीं किस जिम्मेदार अधिकारी की गलती या फिर कमजोरी के कारण भारत की जेलो में लाखों विचाराधीन कैदी बंद हैं। कोर्ट के जरिए रिमांड की व्यवस्था इसलिए की गई थी कि किसी नागरिक को एक दिन भी बेवजह जेल नहीं रहना पड़े। लेकिन कहीं- कहीं लोक अभियोजक की कमजोरी या पुलिस के खौफ से भी सिस्टम को खमियाजा भुगतना पड़ रहा है। अब भी समय है, इस दुश्चक्र को रोकने के लिए प्रभावी नीतिगत कदम उठाए जाएं। अन्यथा लोगों की ‘कोर्ट-कचहरी के चक्कर’ सेे भगवान ही बचाए कहने की आदत में बदलाव शायद ही आ पाए। अदालती प्रक्रिया के दौरान शपथ ली जाती है- ‘ईश्वर मेरी मदद करे’। लगता है मौजूदा स्थिति में यह वाक्य यथार्थ के नजदीकआ चुका है।

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