क्यों जरूरी है सभी पर्वत शृंखलाओं का संरक्षण
हम आज अगर कहीं हवा, मिट्टी या पानी बटोरते हैं, तो यह पर्वतीय क्षेत्रों की ही कृपा है। अपने देश में कोई भी ऐसा राज्य नहीं है, जहां प्रकृति ने पर्वतों को स्थान नहीं दिया हो। ये पर्वत ही हैं, जो वहां के प्राकृतिक उत्पादों के आधार बनते हैं।
क्यों जरूरी है सभी पर्वत शृंखलाओं का संरक्षण
अनिल प्रकाश जोशी
पद्मश्री और पद्मभूषण से सम्मानित पर्यावरणविद पर्वतीय क्षेत्र चाहे दक्षिण भारत के हों या उत्तर में स्थित हिमालय या फिर राजस्थान की अरावली पर्वत माला, इन सबको पारिस्थितिकी का केंद्र समझना होगा। इन सब क्षेेत्रों में पर्वत भौगोलिक संरचना तो देते ही हंै, साथ मेें इनसे हवा, मिट्टी, पानी का स्रोत बनता है। ये सब मूल प्रकृति की देन हैं। हम आज अगर कहीं हवा, मिट्टी या पानी बटोरते हैं, तो यह पर्वतीय क्षेत्रों की ही कृपा है। अपने देश में कोई भी ऐसा राज्य नहीं है, जहां प्रकृति ने पर्वतों को स्थान नहीं दिया हो। ये पर्वत ही हैं, जो वहां के प्राकृतिक उत्पादों के आधार बनते हैं। आप अरावली को ले लें, हिमालय को समझ लें या नील पर्वत पर चर्चा कर लें, कोई भी ऐसी पर्वत शृंखला नहीं है, जिसने देश-दुनिया में बसावटों के लिए संसाधन उपलब्ध न कराए हों। दुनिया में हमेशा से सभ्यता भी इनकी ही कृपा से ही पनपी है। उसके पीछे बहुत बड़ा कारण यहां से नदियों का जन्म होना है।
हमने अपनी स्वतंत्रता के 75 वर्षों में इन पर्वत शृंखलाओं को बहुत महत्त्व नहीं दिया। हिमालय की बात जरूर हुई है। उसके संरक्षण के लिए भी तमाम तरह के प्रयासों के बावजूद हम इस शृंखला के लिए नीति और ढांचा तय नहीं कर पाए, जो उसके संरक्षण पर गंभीरता से ध्यान देता। सभी पर्वत शृंखलाओं में हिमालय की अलग भूमिका है। देश का मानसून हिमालय से टकराकर पूरे देश को नदियों के माध्यम से ही नहीं सींचता, बल्कि वर्षा के रूप में हर जगह अपना योगदान देता रहा है। हिमालय के इस योगदान को देखते हुए हिमालय दिवस की कल्पना की गई। दुनिया में वैसे पर्वतों के महत्त्व को समझते हुए 11 दिसम्बर को माउंटेन डे भी मनाया जाता है। जो खासतौर से यूरोप या अन्य देशों में पर्वतों को नमन करने का दिवस है, पर अपने देश में विभिन्न पर्वत शृंखलाओं को सामूहिक रूप से और अलग-अलग रूप से भी देखे जाने की आवश्यकता अब आ पड़ी है। तेजी से प्रकृति में बदलाव आ रहे हैं, वह नाराज भी है। ग्लोबल वार्मिंग और क्लाइमेट चेंज जैसे मुद्दे अब असर दिखाने लगे हैं। जहां एक तरफ हिमालय लगातार कई तरह की आपदाओं के घेरे में है, वहीं कोई भी देश का हिस्सा ऐसा नहीं है, जो अपने मूल पारिस्थितिकी तंत्र से पिछड़ न गया हो और यह सब इसलिए है कि हमने पारिस्थितिकी तंत्र के मूल को नहीं समझा। जहां से पारिस्थितिकी, पर्यावरण संरक्षण के आयाम तय होते हों, उसे ही समझने की चूक करना हमारी नीतियों की बड़ी गलती है।
बिगड़ती पारिस्थितिकी के दो सबसे बड़े संकेत हैं। पहला पानी का बदलता व्यवहार और दूसरा प्राणवायु। अगर इन पर चिंतन कर लिया जाए, तो यह दोनों ही पर्वतों से ही नियंत्रित होते हैं। पानी के साथ वृक्ष भी जुड़े हैं। इसलिए आवश्यक हो जाता है कि हम देश की तमाम पर्वतीय शृंखलाओं को समझें, जोड़ें और जिस तरह लोग हिमालय दिवस के रास्ते हिमालय के प्रति जनजागरण से जुड़े हैं, उसी तरह देश के सभी पर्वतीय क्षेत्रों के महत्त्त को दर्शा कर सबको जोडऩे का समय आ चुका है। वैसे भी अगर हम ग्लोबल वार्मिंग और क्लाइमेट चेंज जैसे मुद्दों से निपटना चाहते हैं, तो पहाड़ ही उसका उत्तर दे सकते हैं। पहाड़ से ही पानी और किसानी है। हमारा पहला दायित्व है कि हम इनका संरक्षण करें। हर वर्ष उत्तराखंड राज्य में ९ सितंबर को हिमालय दिवस के रूप में मनाने के पीछे मात्र हिमालय की ही बात नहीं बल्कि, तमाम पर्वत शृंखलाओं के संरक्षण को भी जोडऩे का प्रयत्न है। आज आवश्यकता है कि हम देश के पर्वतों को बचाएं। उनके प्रति गंभीरता दिखाएं।
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