1943 में बनी ‘तकदीर’ हो या ‘दुनिया का मेला’ या फिर ‘धर्मात्मा’, कुंभ की विहंगमता सिनेमा ने भले ही नहीं दिखाई हो, भाई अवश्य बिछड़ते रहे। हिंदी सिनेमा के लिए कुंभ बिछडऩे की जगह रही होगी, मेरे लिए मिलने की जगह रही। हिंदी सिनेमा के शो मैन की परंपरा में शुमार किए जाने वाले फिल्मकार सुभाष गई से मेरी मुलाकात 2019 के कुंभ मेले में ही हुई थी। वहां वे आम श्रद्धालु की तरह सहजता के साथ लोगों से मिल रहे थे, बातें कर रहे थे, जमीन पर बैठ रहे थे। वहीं उन्होंने गंगा पर बनी अपनी एक खास डॉक्यूमेंट्री भी प्रदर्शित की थी। इस बार भी कुंभ पर केंद्रित एक डॉक्यूमेंट्री लेकर वे आ रहे हैं। वे कहते हैं, हम दिखाना चाहते हैं कि कुंभ मात्र आस्था का उत्सव नहीं, बल्कि हमारी सांस्कृतिक विरासत का प्रतीक भी है। इसका महत्त्व जितना धार्मिक है, उतना ही यह वैज्ञानिक भी है। उनकी कोशिश इस डॉक्यूमेंट्री को यूनेस्को सहित दुनिया के सभी महत्त्वपूर्ण फिल्म लाइब्रेरियों तक पहुंचाने की है ताकि कुंभ की सही जानकारी लोगों तक पहुंच सके।
वास्तव में फीचर फिल्मों में कुंभ की अनुपस्थिति को भले ही वृत्तचित्रों ने पूरी करने की कोशिश की है, हालांकि कुंभ के हजारों वर्षों की परंपरा को देखते हुए यह भी पर्याप्त नहीं कहा जा सकता। डिस्कवरी प्लस पर उपलब्ध वृत्तचित्र ‘कुंभ-एमांग द सीकर्स’ इलाहाबाद के कुंभ को पूरी विविधता और विहंगमता से चित्रित करते हुए इसके इतिहास तक पहुंचता है। वृत्तचित्र में कुंभ के आयोजन का पहला लिखित प्रमाण सातवीं सदी से माना गया है, चीनी यात्री ह्वेनसांग ने अपने यात्रा वृतांत में राजा हर्षवर्धन के माघ के महीने में प्रयागराज की यात्रा के माध्यम से इसका उल्लेख किया है।