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फिल्मों में नहीं दिखती कुंभ की विराटता

विनोद अनुपम, राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार प्राप्त कला समीक्षक

जयपुरJan 19, 2025 / 03:38 pm

Hemant Pandey

सैकड़ों हिंदी फिल्मों में कुंभ की चर्चा वर्षों से देखी जा रही है, लेकिन शायद ही कोई एक फिल्म ऐसी मिलेगी जिसमें कुंभ के प्रति दुनिया के लोगों की सदियों से चली आ रही आस्था, उसके सांस्कृतिक वैज्ञानिक पक्ष पर बात करने की कोशिश की गई हो।

सैकड़ों हिंदी फिल्मों में कुंभ की चर्चा वर्षों से देखी जा रही है, लेकिन शायद ही कोई एक फिल्म ऐसी मिलेगी जिसमें कुंभ के प्रति दुनिया के लोगों की सदियों से चली आ रही आस्था, उसके सांस्कृतिक वैज्ञानिक पक्ष पर बात करने की कोशिश की गई हो।


हिंदी सिनेमा की यह अजीब सी सीमा दिखती रही है। यह भारतीय आस्था और संस्कृति की गूढ़ता में कभी प्रवेश की कोशिश नहीं करती, बस ऊपर-ऊपर देखकर एक नैरेटिव तैयार कर लेती है। फिर इतनी बार दुहराती कि दर्शकों को भी यकीन होने लगता, यही सच है। कुंभ के साथ भी कुछ ऐसा ही है। सैकड़ों हिंदी फिल्मों में कुंभ की चर्चा वर्षों से देखी जा रही है, लेकिन शायद ही कोई एक फिल्म ऐसी मिलेगी जिसमें कुंभ के प्रति दुनिया के लोगों की सदियों से चली आ रही आस्था, उसके सांस्कृतिक वैज्ञानिक पक्ष पर बात करने की कोशिश की गई हो।
वास्तव में सिनेमा कभी यह समझ ही नहीं पाया कि उसे किसी सामान्य मेले को नहीं, एक अवसर और एक स्थान पर जुटने वाले दुनिया के सबसे बड़े मानव समूह को चित्रित करना है। ऐसा समूह जो मेले के घनघोर शोर, संगीत, गाजे-बाजे के बीच शांति और मोक्ष की खोज में पहुंचता है। ऐसा समूह जिसमें दुनिया के अमीर भी हैं, तो सबसे गरीब भी। विद्वान भी हैं तो निरक्षर भी। संजय झा की 2006 में बनी ‘स्ट्रिंग्स’ जैसी फिल्म, जो नासिक कुंभ के वास्तविक लोकेशन पर फिल्माई गई थी, को छोड़ दें तो अधिकांश फिल्मों के लिए कुंभ बस ‘भाइयों के बिछडऩे’ की जगह रही है।

1943 में बनी ‘तकदीर’ हो या ‘दुनिया का मेला’ या फिर ‘धर्मात्मा’, कुंभ की विहंगमता सिनेमा ने भले ही नहीं दिखाई हो, भाई अवश्य बिछड़ते रहे। हिंदी सिनेमा के लिए कुंभ बिछडऩे की जगह रही होगी, मेरे लिए मिलने की जगह रही। हिंदी सिनेमा के शो मैन की परंपरा में शुमार किए जाने वाले फिल्मकार सुभाष गई से मेरी मुलाकात 2019 के कुंभ मेले में ही हुई थी। वहां वे आम श्रद्धालु की तरह सहजता के साथ लोगों से मिल रहे थे, बातें कर रहे थे, जमीन पर बैठ रहे थे। वहीं उन्होंने गंगा पर बनी अपनी एक खास डॉक्यूमेंट्री भी प्रदर्शित की थी। इस बार भी कुंभ पर केंद्रित एक डॉक्यूमेंट्री लेकर वे आ रहे हैं। वे कहते हैं, हम दिखाना चाहते हैं कि कुंभ मात्र आस्था का उत्सव नहीं, बल्कि हमारी सांस्कृतिक विरासत का प्रतीक भी है। इसका महत्त्व जितना धार्मिक है, उतना ही यह वैज्ञानिक भी है। उनकी कोशिश इस डॉक्यूमेंट्री को यूनेस्को सहित दुनिया के सभी महत्त्वपूर्ण फिल्म लाइब्रेरियों तक पहुंचाने की है ताकि कुंभ की सही जानकारी लोगों तक पहुंच सके।

वास्तव में फीचर फिल्मों में कुंभ की अनुपस्थिति को भले ही वृत्तचित्रों ने पूरी करने की कोशिश की है, हालांकि कुंभ के हजारों वर्षों की परंपरा को देखते हुए यह भी पर्याप्त नहीं कहा जा सकता। डिस्कवरी प्लस पर उपलब्ध वृत्तचित्र ‘कुंभ-एमांग द सीकर्स’ इलाहाबाद के कुंभ को पूरी विविधता और विहंगमता से चित्रित करते हुए इसके इतिहास तक पहुंचता है। वृत्तचित्र में कुंभ के आयोजन का पहला लिखित प्रमाण सातवीं सदी से माना गया है, चीनी यात्री ह्वेनसांग ने अपने यात्रा वृतांत में राजा हर्षवर्धन के माघ के महीने में प्रयागराज की यात्रा के माध्यम से इसका उल्लेख किया है।
2019 के कुंभ में बने इस वृत्तचित्र में यह जानना वाकई चकित करता है कि उस समय विश्व की सबसे बड़ी स्ट्रीट पेंटिंग बनाते हुए पूरे प्रयागराज शहर को कुंभमय कर दिया गया था। यह आर्ट गैलरी कुल मिलाकर 70 एकड़ में बनाई गई थी, जिसे देशभर से आए 4 हजार कलाकारों ने पूरा किया था। कुंभ को थोड़ा करीब से जानना चाहते हैं तो कल्चर अनपल्गड पर उपलब्ध जूलियन राठौड़ की ‘कुंभ मेला-वॉकिंग विद द नागाज’, इंडिया इंस्पायर्स द्वारा बनाई गई ‘कुंभ-इटर्नल जर्नी ऑफ इंडियन सिवलाइजेशन’ भी देख सकते हैं। यूनेस्को ने कुंभ को मानवता की अद्वितीय सांस्कृतिक विरासत के रूप में चिह्नित किया है। वाकई इसे जितना जानने की कोशिश करेंगे, जानने की भूख बढ़ती जाएगी।

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