शरीर ही ब्रह्माण्ड: पत्नी ही प्रकृति है : बाहर-भीतर
पुरुष बाहर आग्नेय भीतर सौम्य है- निराकार है। उसे स्वरूप रक्षा के लिए तपना पड़ता है। साधना करनी पड़ती है। शरीर को छोड़कर हृदय (सूक्ष्म शरीर) पर अधिकार करना पड़ता है। दृढ़ संकल्प से ही यह संभव है। स्त्री का भी पति के साथ दृढ़ संकल्प ही उसे पुरुष हृदय में प्रतिष्ठित करता है। ऋग्वेद में इस विषय को इंगित करते हुए सूर्या सूक्त में कहा है-हे वधू! सुन्दर मुख वाले सूर्य ने तुम्हें जिस बन्धन से बांधा था, मैं तुम्हें वरुण के उस पाश से छुड़ाता हूं। मैं तुम्हें पति के साथ सत्य के आधार एवं सत्कर्म के लोक रूप स्थान में निर्विघ्न रूप से स्थापित करता हूं।
प्र त्वा मुञ्चामि वरुणस्य पाशाद्येन त्वाबध्नात्सविता सुशेव: ।
ऋतस्य योनौ सुकृतस्य लोकेऽरिष्टां त्वा सह पत्या दधामि॥ (ऋ. 10.85.24)
मैं कन्या को पिता के कुल से छुडा़ता हूं, पति के कुल से नहीं। मैं पति के घर से इसे भली-भांति बांधता हूं। हे अभिलाषापूरक इन्द्र! यह सौभाग्य एवं शोभन पुत्र वाली हो।
प्रेतो मुञ्चामि नामुत: सुबद्धाममुतस्करम् ।
यथेयमिन्द्र मीढ्व: सुपुत्रा सुभगासति ॥ (ऋ. 10.85.25)
ऋग्वेद के इस सूक्त में विवाह सम्बन्धित 47 मंत्र हैं जो विवाह के दिव्य स्वरूप पर प्रकाश डालते हैं। इनके अलावा भी विवाह के कुछ मंत्र पारस्कर गृह्य सूत्र में पत्नी के प्राणों का स्थान पति के हृदय में प्रतिष्ठित बताते हैं। यानी कि पुरुष हृदय में पिता के- श्वसुर के प्राण साथ रहते हैं। वह पत्नी की परा प्रकृति (सूक्ष्म प्राण) का कार्य करते हैं तथा पति के प्राणों के साथ ही गमन किया करते हैं। दोनों के प्राण सहचर रूप में जीवन संचालन करते हैं-
शरीर ही ब्रह्माण्ड: पुरुष की संचालिका है शक्तिरूपा
ये दोनों ही प्राण आग्नेय हैं। हृद् प्राणों के साथ कर्म करते हैं। स्त्री के आग्नेय किन्तु सत्य अंश के पोषक प्राण हैं। इन पर जब किसी अन्य प्राण का आक्रमण होता है, तो बलवान रूप होकर उन्हें शापित कर सकते हैं। उनकी हानि कर सकते हैं। इनके साथ ब्रह्म स्वयं युक्त रहते हैं। द्रोपदी चीरहरण के बाद कौरव वंश को शाप देने लगी, तब गांधारी ने से रोका। ”तुम और कोई सजा दे दो, शाप मत दो।‘’ उसे शाप की शक्ति का ज्ञान था। महाभारत के अन्त स्वयं गांधारी ने कृष्ण को यादव वंश के सर्वनाश का शाप दिया था। सच निकला था।
शरीर ही ब्रह्माण्ड: नारी : जाग्रत दिव्यता
श्राप कहो- वर कहो, आत्मा की अव्यय वाक् है। शाप तो एक प्रकार से आत्मा का आक्रमण या प्रतिशोधात्मक प्रतिक्रिया ही है। वैसे दोनों में ही ईश्वरीय विभूति प्रतिष्ठित रहती है। इसे संकल्पित पत्नी का ब्रह्मास्त्र कह सकते हैं जो उसकी दिव्यता का ही प्रमाण है। पति का प्रत्येक कर्म उसे प्रत्यक्ष रहता है। एक व्यक्ति ने आत्म-स्वीकारोक्ति दी कि दिन में जिन शब्दों का प्रयोग मैं अपनी प्रेमिका के साथ करता था, वे ही शब्द पत्नी रात को आपसी संवाद में प्रयुक्त कर लेती थी। स्त्री की यह सूक्ष्म अवस्था ही उसकी ‘मोनोपोली’ है। इसीलिए कहा है—यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते- रमन्ते तत्र देवता:।