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शरीर ही ब्रह्माण्ड: बीज ही फल बनता है, आत्मा को समझ लेना ही बीज को समझना है

इस रचना क्रम का न आदि है, न अन्त। यह सदा एक-सा है। एक ही नियम से विश्व का निर्माण हुआ है। आगे भी होता रहेगा। बीज ही फल बनता है। आत्मा को समझ लेना ही बीज को समझना है। आत्मा आकाश की तरह सर्वत्र व्याप्त है। प्रकाश स्वरूप है, शुद्ध शुक्र रूप है।

जयपुरJun 01, 2024 / 01:23 pm

Gulab Kothari

इस रचना क्रम का न आदि है, न अन्त। यह सदा एक-सा है। एक ही नियम से विश्व का निर्माण हुआ है। आगे भी होता रहेगा। बीज ही फल बनता है। आत्मा को समझ लेना ही बीज को समझना है। आत्मा आकाश की तरह सर्वत्र व्याप्त है। प्रकाश स्वरूप है, शुद्ध शुक्र रूप है।
गुलाब कोठारी, प्रधान संपादक पत्रिका समूह

बीज जीव का वह अंश है जिसमें नया जीव उत्पन्न करने की क्षमता रहती है। बस, उपजाऊ भूमि चाहिए। चूंकि प्रत्येक जीव ब्रह्म का अंश है, अत: प्रत्येक सृष्टि भी ब्रह्म का विवर्त कहलाती है। प्रत्येक बीज में सम्पूर्ण वृक्ष सुरक्षित रहता है। वृक्ष ही ब्रह्माण्ड है। यथाण्डे तथा पिण्डे। बीज की दो ही स्थितियां बनती हैं, एक—वृक्ष बन जाए, दो—समय के साथ नष्ट हो जाए। चूंकि बीज ब्रह्म का वाहक है, अत: इसकी पूर्ण शुद्धता अपेक्षित है। आजकल उन्नत बीजों के नाम पर शुद्ध बीजों को भी विकारग्रस्त कर देते हैं। ऐसे बीज एक-दो फसल के बाद विषाक्त फसलें देने वाले सिद्ध होते हैं। इन्हीं के साथ मिलकर रासायनिक खाद और कीटनाशक अपना दैत्य रूप दिखाते हैं। तब बीज में बचेगा क्या? भीतर बैठा ब्रह्म अपना सिर फोड़ेगा। वह पेड़ बन भी गया तो फल विषाक्त ही होंगे।
एक अन्य प्रयोग होने लगा है—कलम लगाने का। कहीं संकर बीज तैयार करने का। यही तो कार्य मनुष्य योनि, दुधारू पशु योनि, सूअर-चूहे-खरगोश जैसे जीवों पर भी होने लग गए हैं। मनुष्य समाज में वर्ण व्यवस्था समाप्ति की ओर जा रही है। शिक्षा ने समय पर विवाह की अनिवार्यता समाप्त कर दी। इसी कारण जीवन में संकरता का प्रवेश होता गया। ‘लिव-इन’ के प्रयोग शुरू होने लगे। इसका लक्ष्य शरीर की संतुष्टि तक ही रहा। पेड़-पौधों में ‘लिव-इन’ संभव नहीं है। सन्तान का क्रम भी ‘लिव-इन’ में नहीं जैसा ही रहता है। इसके लिए भी जमीन में (स्त्री में) कीटनाशक-गर्भनिरोधक का प्रयोग किया जाता है। इसका प्रभाव स्त्रियों में तो स्पष्टरूप से स्तन तथा गर्भाशय के कैंसर के रूप में दिखाई देता है। अन्य फसलों में भी प्रभाव के प्रति इतनी संवेदना नहीं रहती। फसल नष्ट होती भी है तो जीव-हत्या कौन मानता है? किसान को भी और अधिकारी को भी यह कहां पता होता है कि अन्न में ब्रह्म प्रवाहित रहता है। अत: अन्न ही ब्रह्म है।
विकास और विज्ञान के नाम पर जीवात्मा के चारों ओर विकारों और विकृतियों के आवरण चढ़ गए। जीवात्मा किसी भी योनि में जाए, विकृति साथ जाएगी। तब उनकी चिकित्सा के लिए शोध होंगे। विकृतियों का केन्द्र मन है, विचार हैं, अन्त:स्रावी ग्रन्थियों के स्राव हैं। विकार प्रकट देह में होते हैं। देह दर्पण मात्र है- विचारों का। दूसरी ओर यही मन बाहरी विषयों को भीतर प्रतिबिम्बित भी करता हैं। ये प्रतिबिम्ब नए विचारों और विकारों के जन्मदाता बनते हैं। हमारी प्रकृति-आकृति प्रभावित होती है।
जगत ब्रह्म का विस्तार है, विवर्त है। अर्थात् सब जड़-चेतन वर्ग का बीज एक ही है। अत: जड़-चेतन सभी का शुद्ध होना भी आवश्यक है और पूर्णता भी। तभी नया बीज भी शुद्ध एवं पूर्ण होगा। बीज की रक्षा एवं विकारों से सुरक्षा भी उतनी ही महत्त्वपूर्ण हो जाती है। मानव बीज की सुरक्षा प्रकृति ने मानव की बुद्धि पर छोड़ दी और शेष प्राणियों की वृत्तियों को अपने ही नियंत्रण में रखा। ताकि मानव-बीज के अतिरिक्त शेष 84 लाख योनियों के बीज और जीवनचक्र प्रकृति के नियंत्रण से बाहर नहीं निकले। अकेला मानव ही अपने कर्मों से इतने स्वरूप ग्रहण कर लेता है।
सभी योनियों में एक ही ब्रह्म बीज आ रहा हैं। प्रत्येक बीज में आठ अवयव रहते हैं—अव्यय (आनन्द, विज्ञान, मन, प्राण और वाक्), अक्षर (ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र, अग्नि और सोम), आत्मक्षर (ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र, अग्नि और सोम), विकारक्षर (प्राण, आप:, वाक्, अन्नाद व अन्न), विश्वसृट् (प्राण, आप:, वाक्, अन्नाद व अन्न), पंचीकृत पंचजन (प्राण, आप:, वाक्, अन्नाद व अन्न), पुरंजन (वेद, लोक, प्रजा, भूत और पशु) और पुर (स्वयंभू, परमेष्ठी, सूर्य, पृथ्वी और चन्द्रमा)। प्रत्येक अवयव पंचकल होने से ब्रह्म चालीस कलायुक्त-विराट् कहलाता है। मात्राभेद के आधार पर यह बीज विविध योनियों के रूप में ब्रह्म के विवर्त को बनाता है। बीज ही विराट्ब्रह्म है जिसके आठ अवयव ही आत्मा-प्राण-पशु तीन भागों में बंट जाते हैं। अव्यय-अक्षर-आत्मक्षर आत्मा है। विकार-विश्वसृट्-पंचजन-पुरंजन की समष्टि (संघात) प्राण है। पुर ही पशु है। विराट् का जन्म शुक्र से होता है। शुक्र के सम्बन्ध से ही विराट् पुरुष 40 कलाओं में विभक्त होता है। इसे परमाविराट् कहा जाता है। शुक्र उपादान कारण को कहते हैं। अव्यय (सृष्टि साक्षी), अक्षर (बीजरूप) से गर्भित आत्मक्षर ही विश्व का उपादान कारण है। श्रुति कहती है—
सपर्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविरं शुद्धमपापविद्धम्।

कविर्मनीषी परिभू: स्वयम्भूर्याथात्थ्यतोऽर्थान् व्यदधात्शाश्वतीभ्य: समाभ्य:।।

कायरहित, व्रणरहित, स्नायुरहित अर्थात् शुद्ध (पाप्मा से अविद्ध) शुक्र के चारों ओर मातरिश्वा व्याप्त हो गया। यह सृष्टि का बीजभूत शुक्र महद् ब्रह्म कहा जाता है। यह शुद्ध शुक्र मातरिश्वा से घिरने पर कुछ विजातीय, कुछ सजातीय तत्त्वों के योग से ही सृष्टि का कारण बनता है। सजातीय पदार्थों का जुड़ना काय भाव है। विजातीय पदार्थों का योग व्रणत्व है। इन लक्षणों का सम्बन्ध कराने वाला सूत्र स्नायु कहा जाता है। इन तीनों भावों से वह शुद्ध शुक्र विकृत अवस्था में आकर पाप से युक्त हो जाता है। जब तक शुक्र में ये चारों भाव (काय-व्रण-स्नायु-पाप्मा) नहीं होते तब तक वह सृष्टि नहीं करता।
शुक्र पर पार्थिव, आन्तरिक्ष्य, सौर अग्नियों (शुक्र भी अग्नि रूप है) की चिति ही काय यानी शरीर है। शुक्र ही आधान किए जाने पर गर्भ में वृद्धि पाकर शरीर रूप में परिणत होता है। विजातीय सोम का सम्बन्ध होने से आहूत शुक्र सुत (पुत्र) बनता है। यह विजातीय भाव शुक्र का व्रणत्व है। सोम का स्नेह तत्त्व ही श्रद्धा कहलाता है। संतान से इसी श्रद्धा सूत्र से जुड़ा रहता है। श्रद्धा सूत्र के सम्बन्ध से शुक्र स्नायु युक्त बनता है, स्नाविर कहा जाता है। अविद्या से शुक्र विद्ध रहता है। अविद्या ही पाप्मा (मल) है। इससे युक्त शुक्र ही प्रजोत्पत्ति का कारण है। कवि-मनीषी परिभू-स्वयंभू आदि नामों वाले मातरिश्वा ने शुक्र को परिव्याप्त कर विविध प्रकार के पदार्थों का निर्माण कर दिया। मातरिश्वा भार्गव वायु (भृगु) है। भृगु कवि है। कविपुत्र होने के कारण मातरिश्वा भी कवि कहा जाता है। भृगु के स्नेह तत्त्व से चितिभाव होता है। चितियों के कारण काय बनता है। शुक्र का काय में परिणत होना मातरिश्वा का कवित्व है। ‘बहुस्याम’ कामना विजातीय भाव आने से मन में होती है। मन की कामना मनीषा है। कवि-मनीषी मातरिश्वा शुक्र के चारों ओर व्याप्त होता हुआ उसमें सूत्रभाव का कारण बनता है। इसीलिए यह परिभू (चारों ओर व्याप्त रहने वाला) कहलाता है। मातरिश्वा ही उस शुक्र को स्वयंभू के रूप में परिणत करता है। यह चार धर्मों (कवि-मनीषी-परिभू-स्वयंभू) से युक्त मातरिश्वा विशुद्ध शुक्र को काय-व्रण स्नाविर-पापविद्ध बनाता है। तब वह वेष्टित शुक्र से विश्व का निर्माण किया करता है।
इस रचना क्रम का न आदि है, न अन्त। यह सदा एक-सा है। एक ही नियम से विश्व का निर्माण हुआ है। आगे भी होता रहेगा। बीज ही फल बनता है। आत्मा को समझ लेना ही बीज को समझना है। आत्मा आकाश की तरह सर्वत्र व्याप्त है। प्रकाश स्वरूप है, शुद्ध शुक्र रूप है। अशरीरी है, लिंग-शरीर से रहित है, अक्षत है, शिराशून्य-अस्नाविर है।
अव्रण और अस्नाविर इन दो शब्दों से बताया है कि वह शुद्ध शुक्र स्थूल शरीर नहीं है। शुद्ध, निर्मल, अविद्यामल रहित है। इतना शुद्ध है कि कारण शरीर भी नहीं हो सकता। धर्म-अधर्म से रहित है—पाप से युक्त नहीं है। अत: उसमें पुरुष भाव ही रहता है। इसे पं. मोतीलाल शास्त्री के ईशोपनिषद् भाष्य में सविस्तार देखा जा सकता है। क्रमश:
gulabkothari@epatrika.com

शुक्र पर पार्थिव, आन्तरिक्ष्य, सौर अग्नियों (शुक्र भी अग्नि रूप है) की चिति ही काय यानी शरीर है। शुक्र ही आधान किए जाने पर गर्भ में वृद्धि पाकर शरीर रूप में परिणत होता है। विजातीय सोम का सम्बन्ध होने से आहूत शुक्र सुत (पुत्र) बनता है।

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