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Art and Culture: कभी सिनेमा के सुरों से भी रोशन होती थी दीपावली

जनमानस में रचे-बसे कितने ही गीत इस बात की अभिव्यक्ति हैं कि त्योहार किस तरह हमारे जीवन में शामिल रहे हैं, हमारे सुख दुख के साक्षी रहे हैं

Nov 12, 2023 / 05:06 pm

Nitin Kumar

Art and Culture: कभी सिनेमा के सुरों से भी रोशन होती थी दीपावली

Art and Culture: कभी सिनेमा के सुरों से भी रोशन होती थी दीपावली

विनोद अनुपम
राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार प्राप्त कला समीक्षक
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कहते हैं दीपक राग गाने से इतनी ऊर्जा निकलती थी कि इससे दीपक जल उठते थे। इसे भगवान शंकर के गले से निकला राग माना जाता है। राग दीपक को कभी थाट पूर्वी, तो कभी थाट बिलावल तो कभी थाट खमाज के अंतर्गत गाया जाता था। इसके अलावा कल्याण थाट में एक और राग है जो राग दीपक केदार के नाम से जाना जाता है। दीपोत्सव और दीपक राग में कभी एक नाता रहा होगा, पर 18वीं शताब्दी से यह राग विलुप्त होने लगा था, क्योंकि इसके गाने से गायक के शरीर से अत्यधिक ऊष्मा निकलने लगती थी। इसके अंतिम ख्यात गायक के रूप में तानसेन को याद किया जाता है। माना जाता है कि तानसेन की मृत्यु इसी राग के असमय गायन के कारण उत्पन्न ज्वर से हुई थी। हिंदी में 1943 में बनी ‘तानसेन’ भी वह आखिरी फिल्म थी, जिसमें दीपक राग का प्रयोग किया गया था। जयंत देसाई निर्देशित इस फिल्म में तानसेन की भूमिका महान गायक के.एल. सहगल ने निभाई थी और संगीत दिया था खेमचंद प्रकाश ने। सहगल साहब और खेमचंद प्रकाश ने तानसेन को साकार करते हुए राग दीपक में ‘जगमग जगमग दिया जलाओ…’ तैयार किया, और यह हिंदी सिनेमा का अप्रतिम गीत बना। बाद में 1963 में एक फिल्म ‘संगीत सम्राट तानसेन’ भी बनी, पर मोहम्मद रफी ‘दीपक जलाओ, ज्योति जलाओ मन में…’ में उस राग दीपक को नहीं दोहरा सके।
दीपक राग न हो, लेकिन हिंदी सिनेमा के कई गीत ऐसे हैं, जिन्होंने दीपावली की रागात्मकता को विशिष्ट पहचान दी है। पं. नरेन्द्र शर्मा के शब्दों पर गौर करें – ‘ज्योति कलश छलके/हुए गुलाबी लाल सुनहरे रंगदल बादल के/घर आंगन वन उपवन उपवन/करती ज्योति अमृत के सिंचन/मंगल घट ढलके…।’ लता मंगेशकर की आवाज में यह गीत आज भी सुनाई देता है तो दीपावली की रोशनी के मायने खिल उठते हैं। संगीतकार सुधीर फडके मूलत: मराठी फिल्मों में संगीत के लिए जाने जाते हैं, पर जिन कुछ हिंदी गीतों को उन्होंने अपने संगीत से समृद्ध किया उनमें यह गीत हिंदी सिनेमा के सबसे मधुर गीतों में आज भी शुमार किया जाता है। राग भूपाली पर आधारित यह गीत दीपावली के सौंदर्य के साथ उसकी आध्यात्मिक पवित्रता को भी पूरी तरह साकार करता है।
आज भले ही दीपोत्सव हम ‘टाइगर 3’ के साथ मना रहे हों लेकिन लगभग 1980 के पहले जब बाजार ने हमारे त्योहारों को डिजाइन करना शुरू नहीं किया था, तब हिंदी सिनेमा के लिए दीपावली जैसे अवसर दर्शकों को भावनात्मक रूप से जोडऩे के बहाने होते थे। शक्ति सामंत की फिल्म ‘अनुराग’ का वह दृश्य कैसे भूला जा सकता है, जब बच्चे की अंतिम इच्छा का मान रखने के लिए पूरा मोहल्ला महीने भर पहले दीपावली मना लेता है। आश्चर्य नहीं कि दिवाली (1940), दिवाली की रात (1956), घर घर में दिवाली (1953) जैसी कई फिल्में भी बनीं। तो कई फिल्मों में प्रमुखता के साथ दिवाली के त्योहार फिल्माए गए, जिनके सुमधुर गीत आज भी हमारी धरोहर हैं। 1940 के दशक की ‘खजांची’, ‘रतन’ जैसी फिल्म को छोड़ भी दें तो ‘नजराना’ के गीत ‘मेले हैं चिरागों के, रंगीन दिवाली है/महका हुआ गुलशन है, हंसता हुआ माली है’ को कैसे भूल सकते हैं। ‘गाइड’ में शैलेन्द्र के लिखे गीत को लता जी ने राग तिलंग में गाया है – ‘जग ने उतारे धरती पे तारे, पर मन मेरा मुरझाए/उन बिन आली, कैसी दिवाली…।’ आगे की पंक्तियां तो आपको याद ही होंगी – ‘पिया तोसे नैना लागे रे।’
वास्तव में इन गीतों का महत्त्व सिर्फ इनके संगीत और रागों के कारण ही नहीं है, ये गीत इस बात की अभिव्यक्ति हैं कि त्योहार किस तरह हमारे जीवन में शामिल रहे हैं, हमारे सुख दुख के साक्षी रहे हैं। यही अभिव्यक्ति इन्हें सर्वकालिक सार्थकता देती है।

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