आज भले ही दीपोत्सव हम ‘टाइगर 3’ के साथ मना रहे हों लेकिन लगभग 1980 के पहले जब बाजार ने हमारे त्योहारों को डिजाइन करना शुरू नहीं किया था, तब हिंदी सिनेमा के लिए दीपावली जैसे अवसर दर्शकों को भावनात्मक रूप से जोडऩे के बहाने होते थे। शक्ति सामंत की फिल्म ‘अनुराग’ का वह दृश्य कैसे भूला जा सकता है, जब बच्चे की अंतिम इच्छा का मान रखने के लिए पूरा मोहल्ला महीने भर पहले दीपावली मना लेता है। आश्चर्य नहीं कि दिवाली (1940), दिवाली की रात (1956), घर घर में दिवाली (1953) जैसी कई फिल्में भी बनीं। तो कई फिल्मों में प्रमुखता के साथ दिवाली के त्योहार फिल्माए गए, जिनके सुमधुर गीत आज भी हमारी धरोहर हैं। 1940 के दशक की ‘खजांची’, ‘रतन’ जैसी फिल्म को छोड़ भी दें तो ‘नजराना’ के गीत ‘मेले हैं चिरागों के, रंगीन दिवाली है/महका हुआ गुलशन है, हंसता हुआ माली है’ को कैसे भूल सकते हैं। ‘गाइड’ में शैलेन्द्र के लिखे गीत को लता जी ने राग तिलंग में गाया है – ‘जग ने उतारे धरती पे तारे, पर मन मेरा मुरझाए/उन बिन आली, कैसी दिवाली…।’ आगे की पंक्तियां तो आपको याद ही होंगी – ‘पिया तोसे नैना लागे रे।’
वास्तव में इन गीतों का महत्त्व सिर्फ इनके संगीत और रागों के कारण ही नहीं है, ये गीत इस बात की अभिव्यक्ति हैं कि त्योहार किस तरह हमारे जीवन में शामिल रहे हैं, हमारे सुख दुख के साक्षी रहे हैं। यही अभिव्यक्ति इन्हें सर्वकालिक सार्थकता देती है।