आज अफसरों का प्रयास रहता है कि शहर में ज्यादा से ज्यादा निर्माण हों। ज्यादा से ज्यादा बजट जारी हो और ज्यादा से ज्यादा पैसा जेब में आए। इन कार्यों की गुणवत्ता और दूरदर्शितापूर्ण उपायों के लिए उनकी कोई कोशिश नहीं रहती। दो-तीन इंच बारिश हुई नहीं कि शहर नर्क में बदला। जयपुर ही नहीं, राजस्थान के कमोबेश सभी शहरों में यही हालात हैं। गलियों में नावें चल रही हैं और अफसरों-इंजीनियरों के चेहरे पर शर्म का नामो-निशान नहीं है। बाकी जलभराव और बाढ़ राहत में भी वे कमाई के रास्ते खोज लेते हैं। कलक्टर स्कूलों की छुट्टियां घोषित करके अपने कर्त्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं, शहर की जनता जूझती रहे उनकी बला से।
आज से अच्छी जल-निकास की व्यवस्था तो रियासतकाल में होती थी। शहर के ढलान, नाले-नालियों की चौड़ाई-गहराई, बड़े नालों से पानी को शहर से बाहर निकालने, ठोस कार्य- सब पर ध्यान दिया जाता था। कितनी भी बारिश हो जाए, पानी जमा नहीं होता था। आज तो बरसात शुरू होने तक नालों की सफाई ही नहीं होती। ठेके दिए जाते हैं तो ठेकेदार ऊपरी सफाई करके मलबा वहीं छोड़ देते हैं। वर्षा हुई और कचरा वापस अंदर। सड़कें ऐसी घटिया बनाई जाती हैं कि वर्षा में जगह-जगह धंस जाती हैं।
जयपुर में वर्षों से बरसात के बाद स्टेच्यू सर्किल के चारों ओर पानी भर जाता है। आज तक कोई हल नहीं हुआ। जब शहर के एक प्रमुख स्थल की यह हालत है तो बाकी शहर की दशा क्या होगी, अंदाज लगाया जा सकता है। मालवीय नगर के अंडरपास में हर साल वाहन डूब जाते हैं। कानोता बांध में डूबने की घटनाएं भी हर साल होती हैं। तुर्रा यह कि महापौर और मंत्री रोज निरीक्षण कर फोटो खिंचवाते हैं। कई विधायक और पार्षद भी मगरमच्छी आंसू बहाने में पीछे नहीं हैं। पर उनकी भी समस्या के स्थायी समाधान में कोई रुचि नहीं है। बीटू बाइपास पर करोड़ों की लागत से अंडरपास अभी बना ही है। वर्षा के होते ही उसके नीचे पानी इकट्ठा हो जाता है। यह है हमारे इंजीनियरों की काबिलियत!
सरकारें – चाहें शहर की हो या राज्य की, यदि वह दूरदर्शितापूर्ण निर्णय नहीं लेंगी, अफसरों के भ्रष्ट आचरण पर रोक नहीं लगाएंगी और संकट के समय जनता की सुध नहीं लेंगी तो मौका पड़ने पर जनता उन्हें माफ नहीं करेगी।