सृष्टि का आधार यज्ञ है। सोम को अग्नि में डालकर तद्गत पदार्थों का विशकलन करके उन पदार्थों को वापस उसी आधिदेविक मण्डल में पहुंचा देना यज्ञ है। जहां अग्नि प्राण प्रधान है, वहीं यज्ञ सम्पन्न होता है। यज्ञ में ज्वाला का अर्चि भाग भृगु होता है, तथा अंगारे अग्नि। दोनों को स्थान से हटा दिया जाए तो गर्म स्थान अत्रि का होता है। भृगु-अंगिरा-अत्रि तीनों परमेष्ठी लोक के मनोता हैं। भृगु ही अंगिरा का अन्न बनता है। अन्न ही सोम है, सौम्य है, सौम्या है। सोम भी अग्नि में प्रवेश करके भी जलता नहीं है, अग्नि पर अग्नि बनकर चिति करता है। नया निर्माण करता है। यही कार्य अन्न भी करता है।
अन्न हम सब हैं एक-दूसरे का- सर्वमिदमन्नं सर्वमिदमन्नाद:। तन से-मन से-आत्मा से एक-दूसरे को भोगते हैं। स्त्री अन्न का पर्याय है। स्वयं सौम्या है- पुरुषाग्नि में आहुत होती है। पुरुष से बीज रूप अन्न ग्रहण भी करती है। अपने स्थूल अन्न से बीज को आकृति तथा सूक्ष्म भाग से प्रकृति के आवरण प्रदान करती है- अन्नमयं हि सौम्यं मन:- मन का निर्माण करती है। मन भी सौम्य होता है। अपरा से बनता है क्योंकि मन की परतें स्थूल से स्थूल तक जाती है। मन ही जीवन की कामनाओं का केन्द्र है- जो जीवन की गति का निर्धारण और नियमन करता है। पुरुष बीज में अहंकृति-प्रकृति-आकृति का ब्यौरा रहता है। वैसे ही शिशु का निर्माण मां करती है।
मन की सौम्यता माधुर्य का आश्रय है। माधुर्य एक प्रवाहमान रस होता है। रस को ही ब्रह्म कहते हैं। स्त्री हृदय में ब्रह्म रहता है। स्त्री के वचन-कर्म भी ब्रह्म वाचक होते हैं। शीतलता लिए होते हैं। स्त्री में भावी स्वप्न देखने की क्षमता होती है। अत: सूक्ष्म से सदा जुड़ी रहती है। उसके प्राण भी पुरुष हृदय में रहते हैं। दोनों सूक्ष्म शरीर का अंग बने होते हैं। वहीं से ईश्वरीय कामना उठती है—प्रारब्ध के आधार पर। इसी से पुरुष शरीर में सोम-प्रवाह शुरू हो जाता है। प्रवाह की गति भावनाओं की तीव्रता तय करती है। अग्नि सदा ऊपर उठता है। सोम का प्रवाह एक मन से दूसरे व्यक्ति के मन में प्रवाहित होता अनुभूत हो जाता है। यही मां की शक्ति है।
मां प्रकृति है, माया है, गतिमान तत्त्व है। अत: नित्य प्रवाहमान है, नित्य कर्मशील है। ब्रह्म और कर्म एक होते हुए भी विरुद्ध स्वभाव वाले तत्त्व हैं। ब्रह्म तटस्थ रहकर सुखी रहता है। माया उसे स्वभाव में डालकर कर्म में जोड़ती है। माया के कर्म स्थूल और सूक्ष्म साथ-साथ चलते हैं। वह स्वयं भी जीती है, सन्तान और पति के स्वरूप का भी पोषण करती है। पति के पाप और पुण्य (प्रकृति रूप) अन्न से युक्त होकर परिजनों की प्रकृति को प्रभावित करते हैं। इसी से खानदान के स्वरूप का निर्माण होता है। इसी प्रकार अन्न के साथ किसान और व्यापारी के मनोभाव भी भोक्ता के मन को प्रभावित करते है, रसोइया और परोसने वाले के मनोभाव भी अन्न का हिस्सा बनते हैं। यह सारे मनोभाव माता के माध्यम से गर्भस्थ शिशु तक पहुंचते हैं, पति के मन का भी उसी से पुन: स्वरूप बनता है।
आहार मां के मन का निर्माण करता है। मां पति और पुत्र के मन का निर्माण करती है। वह लक्ष्मी (अर्थब्रह्म या अन्नब्रह्म) की ज्ञाता होती है और नाद ब्रह्म (सरस्वती) का ज्ञान भी रखती है।
मां केवल ९-१० माह के लिए ही नहीं होती। मां जीवन की निरन्तरता है। मां ही प्रार्थना करके जीव का आह्वान करती है। उसके पास पति के साथ सन्तान का स्वप्न भी रहता है। सन्तान के भविष्य की कल्पना भी रहती है। विवाह से पूर्व भी उसे आत्मिक सूचना इन सबकी रहती है। विवाह के साथ ही उसका सन्तान मोह जाग उठता है। सन्तान प्राप्ति के द्वार खुल जाते हैं जो पति की देह से आएगी। पति की कामनापूर्ति का उपक्रम मानकर उसका स्वागत करती है। योग का यह उत्कृष्ट स्वरूप है। विवाह के तुरन्त बाद वह अपने योगिनी रूप को धारण कर लेती है। गीता कहती है-
अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया।। (4.6)
-मैं अपनी प्रकृति को अधीन करके अपनी योगमाया से प्रकट होता हूं। पति की कामना का कारण सन्तान (मातृ-सुख) होता है। उसका स्नेह पति के शरीर से सन्तान को बटोरता रहता है। यही उसकी आहुति का लक्ष्य होता है। इसका प्रमाण भी यही है कि प्राणी मात्र अपने-अपने ऋतुकाल में ही प्रजनन-क्रिया किया करते हैं। इसके अतिरिक्त नहीं। मानव ही इस मर्यादा का उल्लंघन करता है। आज अन्न का तामस भाव प्रबल है। तामसी अन्न से प्रभावित मां का दिव्य भाव आज दुर्बल होता जा रहा है।