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Podcast शरीर ही ब्रह्माण्ड : जीवन गति का नियामक है मन

Gulab Kothari Article Sharir Hi Brahmand: आत्मा ही शरीर का चालक है। परा प्रकृति का क्षेत्र है। शरीर अपरा-जड़-क्षेत्र है। हम शरीर का ही अस्तित्व मानकर जीते हैं, कर्म करते हैं।

जयपुरDec 21, 2024 / 04:46 pm

Hemant Pandey

सृष्टि का आधार यज्ञ है। सोम को अग्नि में डालकर तद्गत पदार्थों का विशकलन करके उन पदार्थों को वापस उसी आधिदेविक मण्डल में पहुंचा देना यज्ञ है। जहां अग्नि प्राण प्रधान है, वहीं यज्ञ सम्पन्न होता है। यज्ञ में ज्वाला का अर्चि भाग भृगु होता है, तथा अंगारे अग्नि।

सृष्टि का आधार यज्ञ है। सोम को अग्नि में डालकर तद्गत पदार्थों का विशकलन करके उन पदार्थों को वापस उसी आधिदेविक मण्डल में पहुंचा देना यज्ञ है। जहां अग्नि प्राण प्रधान है, वहीं यज्ञ सम्पन्न होता है। यज्ञ में ज्वाला का अर्चि भाग भृगु होता है, तथा अंगारे अग्नि।

सृष्टि पुरुष प्रधान है। शेष प्रकृति है, माया है, आवरण है। गहराई से देखें तो यह माया या प्रकृति भी पुरुष का ही अंग है। पुरुष में कर्ता भाव का अभाव कहा गया है, कर्ता-क्रियाभाव-सारा माया का ही क्षेत्र होता है। माया के भी दो रूप हैं- परा प्रकृति और अपरा प्रकृति। माया नाम इच्छा का है, ब्रह्म के मन की इच्छा। ब्रह्म से भिन्न नहीं है। चूंकि मन की भी दो गतियां होती है- ऊध्र्व एवं अध:, अत: प्रकृति भेद भी उसी के अनुरूप हैं।
जो भी जीव पृथ्वी पर अथवा मृत्युलोक (सूर्य तथा पृथ्वी के मध्य) में आता है, यह उसकी अधोगति कहलाती है। सूर्य के आगे अमृतलोक (मह:, जन:, तप:, सत्यम्) हैं। यहां सृष्टि के सारे तत्त्व वायु रूप ही रहते हैं तथा पुन: पृथ्वी की ओर नहीं आते। पार्थिव सृष्टि क्षर पुरुष (स्थूल रूप) कहलाती है। क्षर की पांच कलाएं हैं- प्राण, आप, वाक्, अन्न और अन्नाद। इनमें शुरू की तीन कलाएं हृदय रूप में कार्य करती है, अन्तिम दो कलाएं ही अग्नि-सोम रूप क्रिया भाव से सृष्टि को आगे बढ़ाती हैं। हृदय की तीनों कलाएं प्रकृति रूप हैं। हृदय के तीन प्राण- ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र (महेश) कहलाते हैं। इन्हीं की तीनों शक्तियां- महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती हैं, प्रकृति हैं।

सृष्टि का आधार यज्ञ है। सोम को अग्नि में डालकर तद्गत पदार्थों का विशकलन करके उन पदार्थों को वापस उसी आधिदेविक मण्डल में पहुंचा देना यज्ञ है। जहां अग्नि प्राण प्रधान है, वहीं यज्ञ सम्पन्न होता है। यज्ञ में ज्वाला का अर्चि भाग भृगु होता है, तथा अंगारे अग्नि। दोनों को स्थान से हटा दिया जाए तो गर्म स्थान अत्रि का होता है। भृगु-अंगिरा-अत्रि तीनों परमेष्ठी लोक के मनोता हैं। भृगु ही अंगिरा का अन्न बनता है। अन्न ही सोम है, सौम्य है, सौम्या है। सोम भी अग्नि में प्रवेश करके भी जलता नहीं है, अग्नि पर अग्नि बनकर चिति करता है। नया निर्माण करता है। यही कार्य अन्न भी करता है।

अन्न हम सब हैं एक-दूसरे का- सर्वमिदमन्नं सर्वमिदमन्नाद:। तन से-मन से-आत्मा से एक-दूसरे को भोगते हैं। स्त्री अन्न का पर्याय है। स्वयं सौम्या है- पुरुषाग्नि में आहुत होती है। पुरुष से बीज रूप अन्न ग्रहण भी करती है। अपने स्थूल अन्न से बीज को आकृति तथा सूक्ष्म भाग से प्रकृति के आवरण प्रदान करती है- अन्नमयं हि सौम्यं मन:- मन का निर्माण करती है। मन भी सौम्य होता है। अपरा से बनता है क्योंकि मन की परतें स्थूल से स्थूल तक जाती है। मन ही जीवन की कामनाओं का केन्द्र है- जो जीवन की गति का निर्धारण और नियमन करता है। पुरुष बीज में अहंकृति-प्रकृति-आकृति का ब्यौरा रहता है। वैसे ही शिशु का निर्माण मां करती है।

मन की सौम्यता माधुर्य का आश्रय है। माधुर्य एक प्रवाहमान रस होता है। रस को ही ब्रह्म कहते हैं। स्त्री हृदय में ब्रह्म रहता है। स्त्री के वचन-कर्म भी ब्रह्म वाचक होते हैं। शीतलता लिए होते हैं। स्त्री में भावी स्वप्न देखने की क्षमता होती है। अत: सूक्ष्म से सदा जुड़ी रहती है। उसके प्राण भी पुरुष हृदय में रहते हैं। दोनों सूक्ष्म शरीर का अंग बने होते हैं। वहीं से ईश्वरीय कामना उठती है—प्रारब्ध के आधार पर। इसी से पुरुष शरीर में सोम-प्रवाह शुरू हो जाता है। प्रवाह की गति भावनाओं की तीव्रता तय करती है। अग्नि सदा ऊपर उठता है। सोम का प्रवाह एक मन से दूसरे व्यक्ति के मन में प्रवाहित होता अनुभूत हो जाता है। यही मां की शक्ति है।

मां प्रकृति है, माया है, गतिमान तत्त्व है। अत: नित्य प्रवाहमान है, नित्य कर्मशील है। ब्रह्म और कर्म एक होते हुए भी विरुद्ध स्वभाव वाले तत्त्व हैं। ब्रह्म तटस्थ रहकर सुखी रहता है। माया उसे स्वभाव में डालकर कर्म में जोड़ती है। माया के कर्म स्थूल और सूक्ष्म साथ-साथ चलते हैं। वह स्वयं भी जीती है, सन्तान और पति के स्वरूप का भी पोषण करती है। पति के पाप और पुण्य (प्रकृति रूप) अन्न से युक्त होकर परिजनों की प्रकृति को प्रभावित करते हैं। इसी से खानदान के स्वरूप का निर्माण होता है। इसी प्रकार अन्न के साथ किसान और व्यापारी के मनोभाव भी भोक्ता के मन को प्रभावित करते है, रसोइया और परोसने वाले के मनोभाव भी अन्न का हिस्सा बनते हैं। यह सारे मनोभाव माता के माध्यम से गर्भस्थ शिशु तक पहुंचते हैं, पति के मन का भी उसी से पुन: स्वरूप बनता है।
मां के प्रत्येक कर्म में उसका प्राकृत स्वरूप रहता है। उसकी सहज गति, निर्माण और पोषण का भाव रहता है। पति के अन्न के साथ उसका श्रद्धा भाव बना रहता है, स्नेह रहता है और अस्वस्थ अवस्था में वात्सल्य भी उमड़ता रहता है। सन्तान के अन्न में वात्सल्य-माधुर्य-लालित्य भाव के साथ सुखद भविष्य की कामना रहती है। स्त्री को इस तथ्य का ज्ञान रहता है कि उसका पति ही पुत्र बनता है। अत: उसका मातृत्व दोनों के लिए स्वाभाविक है। पिता और पुत्र दो नहीं है। स्तनपान के रूप में उसका स्थूल और सूक्ष्म मातृत्व भाव दोनों के मनों को समान रूप से पोषित करता है। मां दोनों के मध्य का सेतु बनी रहती है।

आहार मां के मन का निर्माण करता है। मां पति और पुत्र के मन का निर्माण करती है। वह लक्ष्मी (अर्थब्रह्म या अन्नब्रह्म) की ज्ञाता होती है और नाद ब्रह्म (सरस्वती) का ज्ञान भी रखती है।
मां केवल ९-१० माह के लिए ही नहीं होती। मां जीवन की निरन्तरता है। मां ही प्रार्थना करके जीव का आह्वान करती है। उसके पास पति के साथ सन्तान का स्वप्न भी रहता है। सन्तान के भविष्य की कल्पना भी रहती है। विवाह से पूर्व भी उसे आत्मिक सूचना इन सबकी रहती है। विवाह के साथ ही उसका सन्तान मोह जाग उठता है। सन्तान प्राप्ति के द्वार खुल जाते हैं जो पति की देह से आएगी। पति की कामनापूर्ति का उपक्रम मानकर उसका स्वागत करती है। योग का यह उत्कृष्ट स्वरूप है। विवाह के तुरन्त बाद वह अपने योगिनी रूप को धारण कर लेती है। गीता कहती है-

अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया।। (4.6)
-मैं अपनी प्रकृति को अधीन करके अपनी योगमाया से प्रकट होता हूं। पति की कामना का कारण सन्तान (मातृ-सुख) होता है। उसका स्नेह पति के शरीर से सन्तान को बटोरता रहता है। यही उसकी आहुति का लक्ष्य होता है। इसका प्रमाण भी यही है कि प्राणी मात्र अपने-अपने ऋतुकाल में ही प्रजनन-क्रिया किया करते हैं। इसके अतिरिक्त नहीं। मानव ही इस मर्यादा का उल्लंघन करता है। आज अन्न का तामस भाव प्रबल है। तामसी अन्न से प्रभावित मां का दिव्य भाव आज दुर्बल होता जा रहा है।
आज माताएं केवल स्थूल ज्ञान को ही स्वरूप ज्ञान मानती हैं। उनके ब्रह्म स्वरूप से अनभिज्ञ रहती हैं। गर्भस्थ अवस्था में भी शिशु के स्थूल स्वरूप पर ही चिन्तन टिका रहता है। शरीर का भी ज्ञान मात्र भौतिक रूप का ही होता है। मानव संस्थागत आध्यात्मिक स्वरूप से उसका परिचय ही नहीं होता। अत: दोनों के मध्य आत्मिक संवाद होता ही नहीं। स्त्री के सूक्ष्म स्वरूप की उपादेयता यहीं तो परिलक्षित होती है। अन्न ब्रह्म का प्रभाव स्थूलता की ओर अधिक प्रभावी हो पाता है क्योंकि यहां अनेक प्रकार के व्यवधान होते हैं। कितनी माताएं आज खाना बनाते समय पति या पुत्र के स्वरूप निर्माण की लोरियां गाती हैं? उनकी प्राथमिकता आज यह है ही नहीं।
क्रमश:

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1. Podcost शरीर ही ब्रह्माण्ड : अन्न है उत्पत्ति और विनाश का कारक

2. podcast शरीर ही ब्रह्माण्ड : स्त्री की दिव्यता

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