राष्ट्रीय स्तर पर वन और वृक्ष आवरण क्षेत्र का दायरा बढऩे के बावजूद पारिस्थितिक संतुलन की दृष्टि से लक्ष्य फिलहाल काफी दूर है। देश की वन नीति के हिसाब से कुल भौगोलिक क्षेत्र में 33 फीसदी हिस्सेदारी वन क्षेत्र की होनी चाहिए। एफएसआइ की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक यह हिस्सेदारी 25.17 फीसदी तक ही पहुंची है। एफएसआइ ने सर्वेक्षण रिपोर्ट की शुरुआत 1987 में की थी। तब से अब तक यह हिस्सेदारी करीब दो फीसदी ही बढ़ी है। हर दो साल में जारी होने वाली रिपोर्ट में वन और वृक्ष आवरण क्षेत्र में घटत-बढ़त होती रहती है। कुल भूमि के मुकाबले वनों के अनुपात का ग्राफ ज्यादा ऊपर नहीं उठता। जाहिर है, दुनिया के दूसरे देशों की तरह जनसंख्या वृद्धि, शहरीकरण और औद्योगीकरण के कारण भारत में भी जंगल प्राकृतिक तौर पर फल-फूल नहीं पा रहे हैं। विकास परियोजनाओं और खनन के लिए जंगलों की कटाई बड़ी समस्या है, जिस पर सुप्रीम कोर्ट भी समय-समय पर चिंता जताता रहा है।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कटाई से हर साल करीब एक करोड़ हेक्टेयर वन क्षेत्र घट रहा है। दो साल पहले एक रिपोर्ट में बताया गया था कि दस साल में देश के 52 टाइगर रिजर्व के वन क्षेत्र में 22.62 वर्ग किलोमीटर की कमी आई। यानी जहां बाघ रहते हैं, वहां भी जंगल सिकुड़ रहे हैं। पूर्वोत्तर में हाइवे और एयरपोर्ट बनाने के लिए वनों की कटाई की गई। जंगलों की कटाई से होने वाले नुकसान की भरपाई सिर्फ वृक्षारोपण से नहीं की जा सकती। ऐसा इसलिए क्योंकि जंगल कटने के कारण प्रकृति की लय बिगडऩे से नए खतरे सिर उठाते हैं। ऐसे में मानव सभ्यता को इन खतरों से बचाने के लिए वैश्विक स्तर पर जंगलों की रक्षा की दूरगामी रणनीति बनाना जरूरी है।