भूजल संरक्षण नहीं किया तो पीढि़य़ों के दिन होंगे मुश्किल भरे
केंद्रीय भूजल बोर्ड की नवीनतम रिपोर्ट ने देश में भूजल के स्तर को लेकर कुछ ऐसे तथ्य रेखांकित किए हैं, जो चिंता पैदा करते हैं। यह चिंता तो पर्यावरणविदों को लंबे समय से सता रही है कि देश में भूजल का स्तर लगातार गिर रहा है, लेकिन इस नवीनतम रिपोर्ट में यह तथ्य सामने आया […]
केंद्रीय भूजल बोर्ड की नवीनतम रिपोर्ट ने देश में भूजल के स्तर को लेकर कुछ ऐसे तथ्य रेखांकित किए हैं, जो चिंता पैदा करते हैं। यह चिंता तो पर्यावरणविदों को लंबे समय से सता रही है कि देश में भूजल का स्तर लगातार गिर रहा है, लेकिन इस नवीनतम रिपोर्ट में यह तथ्य सामने आया है कि गुजरात, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, छत्तीसगढ़ और पश्चिमी बंगाल में जहां कुओं के जल स्तर में अपेक्षाकृत सुधार हुआ है, वहीं राजस्थान और पंजाब जैसे राज्यों में कुओं के जलस्तर में आमतौर पर गिरावट देखी गई है। रिपोर्ट के अनुसार राजस्थान में तो 66 फीसदी कुओं में जलस्तर गिरा है। यह स्थिति इसलिए चिंतित करती है क्योंकि इस वर्ष देश में अच्छी वर्षा हुई है। राजस्थान में तो भूजल संरक्षण की एक पुष्ट परंपरा है। पश्चिमी राजस्थान का एक बड़ा हिस्सा रेगिस्तानी है और रेगिस्तान में जल की उपलब्धि कम होने के कारण पारंपरिक तौर पर यहां पानी बचाना सामाजिक जिम्मेदारी का काम माना जाता है। चूंकि रेगिस्तान में जल की उपलब्धि अपेक्षाकृत विरल होती है, इसलिए प्राचीनकाल में तालाब, कुएं, बावड़ी, कुंड या जोहड़ बनवाना बहुत पुण्य का काम माना जाता था।
पश्चिमी राजस्थान के तो कुओं के वास्तु का अध्ययन भी बहुत रोचक हो सकता है। ये कुएं न केवल इतने गहरे हैं कि इन्हें पातालतोड़ कुआं कह दिया जाता है बल्कि ये इतने विशाल भी होते हैं कि इनके ऊपर हुए निर्माण में बरसों तक सरकारी ऑफिस तक चले हैं। पश्चिमी भारत में कुछ बावडिय़ां तो इतनी विशाल हैं कि जरूरत पडऩे पर पूरी सेना इन बावडिय़ों में शरण ले सकती थी। बूंदी जिले में हिण्डोली के तालाब के बारे में एक रोचक कथा है। कहते हैं कि सदियों पहले एक बंजारे ने इधर से गुजरते हुए अपनी बेटी का विवाह यहां के एक युवक से कर दिया। एक दिन बेटी किसी कारण से जब गंदे पांव लेकर घर में घुस गई तो सासू मां ने ताना दिया -‘तेरे पिता ने कौनसा तालाब बनवा रखा है, जो बार-बार घर साफ करने के लिए यहां पानी बहाते रहेंगे?’ यह बात बंजारे को पता चली तो वह अपने काफिले के साथ आया और उसने गांव में सचमुच तालाब बनवा दिया। प्राचीनकाल में श्रेष्ठियों के घरों में, मंदिरों में, सामुदायिक भवनों में और सार्वजनिक स्थलों पर कुएं हुआ करते थे। उस दौर में कुएं, बावड़ी, कुंड, तालाब, जोहड़ वर्षा जल को स्वयं में संचित करके न केवल आसपास की आबादी को रोजमर्रा की आवश्यकता के लिए जल उपलब्ध कराते थे, बल्कि भूजल स्तर को बढ़ाने में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते थे।
समय और समाज की बदलती हुई प्राथमिकताओं ने अधिकांश प्राचीन कुओं, बावडिय़ों, तालाबों, कुंडों को उपेक्षा के गर्त में धकेल दिया। दुर्भाग्य से नदियां तो प्रदूषण की मार झेल ही रही हैं, बरसात के पानी के संरक्षण को लेकर भी समाज बहुत सजग नहीं रह गया है। 70 के दशक के अंत में जब गांव-गांव में नलकूपों के माध्यम से जलापूर्ति संभव करने का अभियान चला तो धरती की गोद में छुपे पानी के भंडारण को अपनी आवश्यकता के अनुसार बाहर निकालने का साधन तो लोगों को मिल गया लेकिन धरती के अंक की जल समृद्धि को बचाए और बनाए रखा जा सके, इस दृष्टि से गंभीर प्रयास नहीं हुए। कुछ लोगों को लगता है कि पृथ्वी की दो तिहाई सतह पानी से ढंकी हुई है, फिर पानी की कमी की संभावना को लेकर इतनी हाय-तौबा क्यों?
दरअसल, उन लोगों को यह नहीं मालूम कि दुनिया में उपलब्ध कुल पानी का केवल दो से तीन प्रतिशत पानी ही शुद्ध रूप में मनुष्य उपयोग कर सकता है और अभी दुनिया में आबादी का एक बड़ा हिस्सा पानी की कमी का सामना कर रहा है। भारत जैसे देश में, जहां अधिकांश हिस्सों में नदियों का जाल है, दुनिया की आबादी का 17 प्रतिशत हिस्सा रहता है, पानी की उपलब्ध मात्रा दुनिया के कुल स्वच्छ जल का केवल चार प्रतिशत है। पानी बचाना हमारी सामाजिक जिम्मेदारी है। केवल जिम्मेदार संस्थानों के प्रावधानों से स्थिति में सुधार नहीं होगा, बल्कि पूरे समाज को समझना होगा कि यदि भूजल का संरक्षण नहीं किया गया, भूजल का दुरुपयोग बंद नहीं किया गया तो पीढि़य़ों के लिए दिन बहुत मुश्किल भरे होंगे।
- अतुल कनक लेखक और साहित्यकार
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