पर्यावरण के साथ किसानों का भी हितैषी है मोटा अनाज
मोटे अनाजों को जब हम संस्कृति और स्वास्थ्य से जोड़ देंगे, तो ये जन-जन के लिए उपलब्ध हो जाएंगे और इनका उत्पादन भी बढ़ जाएगा। प्रकृति प्रदत्त यह अनमोल उपहार वास्तव में किसान हितैषी उपहार भी है और जब जन-जन की थाली में मोटा अनाज जाएगा, तो किसान की जेब भी खाली नहीं रहेगी। कम लागत में उत्पादन, उपज का सरल टिकाऊ भंडारण और निर्यात से अन्नदाता किसान खुश रहेगा। सस्ते पोषण से स्वस्थ और सशक्त भारत का निर्माण भी होगा।
पर्यावरण के साथ किसानों का भी हितैषी है मोटा अनाज
आर. एन. त्रिपाठी
प्रोफेसर समाजशास्त्र, बीएचयू और सदस्य, यूपीपीएससी मोटे अनाज की पोषकता के बारे में कोई शक नहीं है। इसमें कार्बोहाइड्रेट, वसा, प्रोटीन और अन्य आवश्यक खनिज पदार्थ भरपूर मात्रा में होते हैं। कम पानी में पर्यावरण को बहुत ही कम क्षति पहुंचाए कम लागत पर इनका उत्पादन किया जा सकता है। इनमें खाद और कीटनाशकों का भी प्रयोग बहुत कम होता है। भंडारण की दृष्टि से भी ये काफी टिकाऊ होते हैं। भारत में प्रकृति आधारित कृषि आज भी है। इसलिए यहां इनका उत्पादन आसानी से बढ़ सकता है।
हरित क्रांति में केवल गेहूं और चावल के उत्पादन में आशातीत वृद्धि हुई, पीली क्रांति में सरसों और मूंगफली के उत्पादन में यथासंभव वृद्धि की गई, परंतु मोटे अनाजों के लिए कोई विशेष कार्यक्रम नहीं चलाया गया। इसका परिणाम यह हुआ कि राजस्थान, हरियाणा, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश और झारखंड के कुछ क्षेत्रों में ही इनका सीमित मात्रा में उत्पादन होता है। पंजाब और उत्तर प्रदेश कृषि उत्पादन के दो प्रमुख केंद्र हैं। अब उनके उत्पादन की मुख्य फसल धान और गेहूं हो गई है। कीटनाशकों के अत्यधिक इस्तेमाल ने पर्यावरण को अपूरणीय क्षति पहुंचाई है। इससे पशु-पक्षियों को भी भयानक नुकसान पहुंच रहा है। मोटे अनाजों के उत्पादन की तरफ ध्यान नहीं देने से यह नुकसान हुआ है।
हाल ही प्रधानमंत्र नरेंद्र मोदी के सान्निध्य में संसद में हुआ भोज, मोटे अनाजों की तरफ जनता का ध्यान आकर्षित करने का माध्यम बना। जी-20 की मेजबानी में भी मोटे अनाजों से निर्मित भोजन सामग्री उपलब्ध कराने की योजना है। मोटे अनाज के प्रति आकर्षण बढऩे का फायदा भारत को होगा, क्योंकि भारत में प्रकृति आधारित कृषि भी होती है। खरीफ की फसल का तो यह सर्वाधिक उत्पादन होता है। आज भारत में 80 करोड़ लोगों को मुफ्त राशन दिया जा रहा है, अगर इस योजना में मोटे अनाजों का हिस्सेदारी बढ़ जाती है, तो जन-जन के शरीर में आवश्यक पोषक तत्व आसानी से पहुंच जाएंगे। मिड-डे मील जैसी योजनाओं में भी मोटे अनाजों की हिस्सेदारी से बच्चों में भी पौष्टिकता बढ़ेगी। इस दृष्टि से 2021 से केंद्रीय अनाज पूल में इनकी खरीद का लक्ष्य काफी बढ़ाया गया है। व्यावसायिक दृष्टि से देखा जाए, तो मक्का के विभिन्न प्रकार के उत्पाद बाजार में उपलब्ध हैं। अब ज्वार, बाजरे और रागी को भी मिला लिया जाए, तो इनके नूडल्स, बिस्किट और मल्टीग्रेन आटा जैसे उत्पाद व्यावसायिक दृष्टि से बेहतर साबित होंगे। विशेष करके आज जब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कार्बन उत्सर्जन को कम करने की बात की जा रही है और कम लागत में उत्पादन को बढ़ाने की बात की जा रही है, तो इसका महत्त्व बढ़ जाता है। इस माहौल में मोटे अनाज को बढ़ावा देना ही विकल्प है, जो अफ्रीकी देशों के साथ-साथ भारत में ही सर्वाधिक उत्पादित हो सकते हैं। इसलिए मोटे अनाजों के उत्पादन के लिए एक समावेशी सघन कृषि नीति की आवश्यकता है। जिन क्षेत्रों में कृषि योग्य जमीन का उपयोग नहीं हो पा रहा है या कम वर्षा के कारण जो क्षेत्र असिंचित रह गए हैं, वहां इनके उत्पादन पर ध्यान दिया जा सकता है।
अपने भोजन में जब तक हम मोटे अनाज को शामिल नहीं करेंगे, तब तक पौष्टिकता के मोर्चे पर कमजोर ही रहेंगे। मोटे अनाज के उत्पादन को बढ़ावा तक तक नहीं मिल सकता, जब तक हम इसके उपयोग को बढ़ाने देने के बारे में गंभीर नहीं होंगे। मोटे अनाज को बढ़ावा देने का अभियान केवल व्यवसाय की दृष्टि से ही ठीक नहीं है, बल्कि एक स्वस्थ और सशक्त भारत के निर्माण के लिए भी यह आवश्यक है। सभ्यता के मूल में अगर देखा जाए, तो मोटे अनाज ही रहे हैं, जो स्वास्थ्य रक्षा तथा जीवनशक्ति बढ़ाते हैं। इन मोटे अनाजों को जब हम संस्कृति और स्वास्थ्य से जोड़ देंगे, तो ये जन-जन के लिए उपलब्ध हो जाएंगे और इनका उत्पादन भी बढ़ जाएगा। प्रकृति प्रदत्त यह अनमोल उपहार वास्तव में किसान हितैषी उपहार भी है और जब जन-जन की थाली में मोटा अनाज जाएगा, तो किसान की जेब भी खाली नहीं रहेगी। कम लागत में उत्पादन, उपज का सरल टिकाऊ भंडारण और निर्यात से अन्नदाता किसान खुश रहेगा। सस्ते पोषण से स्वस्थ और सशक्त भारत का निर्माण भी होगा।
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