दिखावे के दौर में सस्टेनेबल डवलपमेंट लक्ष्य से हो रहे दूर
डॉ. विवेक एस. अग्रवालसंचार और शहरी स्वास्थ्य विशेषज्ञइन दिनों पर्यावरण को लेकर अत्यधिक चिंता व्यक्त की जा रही है। चाहे वो वायु को लेकर हो या पानी की गुणवत्ता को लेकर। आमतौर पर ऐसा कहा जाता है कि सांस लेना ही दूभर हो गया है। इन सबमें सिर्फ सरकार को उत्तरदायी मान चर्चा की इतिश्री […]
डॉ. विवेक एस. अग्रवाल
संचार और शहरी स्वास्थ्य विशेषज्ञ
इन दिनों पर्यावरण को लेकर अत्यधिक चिंता व्यक्त की जा रही है। चाहे वो वायु को लेकर हो या पानी की गुणवत्ता को लेकर। आमतौर पर ऐसा कहा जाता है कि सांस लेना ही दूभर हो गया है। इन सबमें सिर्फ सरकार को उत्तरदायी मान चर्चा की इतिश्री कर दी जाती है, लेकिन वास्तविकता इससे कोसों दूर है। सस्टेनेबल डवलपमेंट लक्ष्यों में सबसे अहम पर्यावरण को संरक्षित करना होता है और उसी से समाज और अर्थव्यवस्था भी जुड़ी रहती है। लेकिन आजकल दिखावे का दौर है। कुछ परंपराओं के नाम पर और कुछ दूसरे से अधिक करने के प्रयास में हम सस्टेनेबल डवलपमेंट लक्ष्य से अपने आप को और दूर कर लेते हैं। कुछ छोटे-छोटे से बदलाव इतने व्यापक हो गए हैं कि उनके कारण पर्यावरणीय व्यवस्था प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष दोनों रूप में प्रभावित हो गई है। आजकल, आयोजन चाहे कुछ भी हो राजनीतिक, धार्मिक या सामाजिक, एक परंपरा चल निकली है कि सभी आगंतुकों का दुपट्टा पहना स्वागत किया जाता है। इसी प्रकार आयोजनों और यात्राओं में ध्वज लगाने का चलन भी आम हो गया है।
प्रत्यक्षत: तो यह माना जाता है कि दुपट्टा या ध्वज बनाने में तो एक छोटा सा कपड़े का टुकड़ा लगता है। लेकिन उसके निर्माण और निष्पादन से पर्यावरण कितना प्रदूषित होता है, यह संभवतया बेलगाम इस्तेमाल करने वालों ने कभी सोचा भी नहीं होगा। अव्वल तो आमतौर पर बनने वाले दुपट्टे सिंथेटिक रेशे से बनते हैं जो कि कुल मिलाकर पेट्रोलियम पदार्थों का ही अवशेष होता है और उन्हें रंगने के लिए काम में लिए जाने वाले रसायन तो निश्चित रूप से विषैले होते ही है। यदि ये सूती भी होते हैं तो कपास के उत्पादन में लगने वाले अत्यधिक पानी की मात्र से भी सभी अनभिज्ञ होते हैं। इसी प्रकार उनमें साज-सज्जा करने के नाम पर जो चमकीले तार या अन्य सामग्री लगाई जाती है वो भी अधिकांशतया प्लास्टिक की ही होती है, ऐसे में इनका निष्पादन दुष्कर हो जाता है। स्वागत की इस कड़ी में एक अन्य परिवर्तन फूलमाला और पुष्प को लेकर भी आया है। वर्तमान में उनकी जगह या तो सिंथेटिक माला ने ले ली है जो प्रमुखतया प्लास्टिक से बनी होती है या प्लास्टिक से लिपटे हुए पुष्प या गुलदस्ते भेंट किए जाते है। ऐसे में रंगीन और पुन: चक्रित न हो सकने वाले प्लास्टिक का दुरुपयोग वातावरण को सीधे-सीधे नुकसान पहुंचाता है।
इसी प्रकार आयोजनों में विभिन्न सामग्री जैसे मुखवास, नैपकिन आदि को भी पॉलिथीन की थैली में पैक करके देना या मल्टी लेयर पैकेजिंग वाली सामग्री को वितरित करना भी आम चलन हो गया है। विषय यह है कि किसी भी चलन या परंपरा को स्थापित करने से पूर्व उसे एकाकी रूप में नहीं देखते हुए उसके समग्र प्रभाव का आकलन करना मानवता के लिए हितकर होगा। यदि एक-दो दशक पहले के आयोजनों को देखें तो उनमें इतना दिखावा नहीं होता था, लेकिन आजकल फैशन के चलते इनमें निरंतर बदलाव आते जा रहे हैं और इसमें रसायनों से बनी सामग्रियों का इतना व्यापक उपयोग हो रहा है कि वातावरण दूषित हो रहा है। तथ्य यह भी है कि सिंथेटिक रेशे बनाने के लिए जीवाश्म ईंधन उद्योग को निरंतरता प्रदान करना भी आवश्यक है। तो कहीं उस उद्योग द्वारा ही अपने को शाश्वत रखने के लिए यह नवाचार तो नहीं किए जा रहे हैं। यदि इन सामग्रियों में कागज या कपड़े का भी उपयोग करते हैं तो भी उनके रंगने में इस्तेमाल होने वाले रसायन तथा उनके सृजन में काटे जाने वाले पेड़ पर्यावरण सम्मत नहीं रहते। अत: एक अभियान रूप इन अनावश्यक रूप से उपयोग ली जाने वाली सामग्री पर पाबंदी लगाने के लिए धार्मिक, सामाजिक व राजनीतिक संगठनों को पहल करनी चाहिए।
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