पंचपर्वा विश्व की अवधारणा में स्वयम्भू, परमेष्ठी, सूर्य, चन्द्रमा और पृथ्वी में यही प्रकृति शक्ति क्रमश: ब्रह्मशक्ति, विष्णुशक्ति, इन्द्रशक्ति, सोमशक्ति तथा अग्नि शक्ति कही जाती है। इसमें से स्वयंभू की शक्ति ही मूलमाया है। यही आत्मशक्ति है, सबकी मूल प्रतिष्ठा है।
विष्णुमाया को महत् शक्ति कहते हैं, यही विश्वविज्ञान की मूल प्रतिष्ठा है। केनोपनिषद् में इसे हेमवती उमा कहा जाता है। मानव में बुद्धि रूप में यही शक्ति प्रवर्तित है। सोम गर्भित इन्द्रमाया ही प्रज्ञानशक्ति है, मानव में यह मन कहलाती है। अग्निमाया भूतशक्ति है, यही शरीर रूप में दिखाई देती है।
त्रिसत्या वै देवा: के अनुसार ब्रह्मा-विष्णु-इन्द्र की समष्टि ‘ज्ञानशक्ति’ है। विष्णु-इन्द्र-सोम की सम्मिलित अवस्था को क्रियाशक्ति कहते हैं। इन्द्र-सोम-अग्नि का समन्वित रूप अर्थशक्ति है। ज्ञान-क्रिया-अर्थ रूप इन त्रिविध शक्तियों के आदित्य, वायु तथा अग्नि देवता हैं।
अधिदेव संस्था में ये सर्वज्ञ, हिरण्यगर्भ तथा विराट् रूप में है। अध्यात्म में प्राज्ञ, तैजस् और वैश्वानर रूप में इनका विकास होता है। इन शक्तियों से समन्वित ही पुरुष शक्तिमान कहलाता है। श्रुति कहती है ‘सूर्य ही सब प्रजाओं का प्राण है। सब प्राणी सूर्य से ही पैदा होते हैं।’
श्रुति कहती है कि मनुष्य का आत्मा अद्र्धेन्द्र है।
अपूर्णता के रह जाने से मनुष्यादि प्राणियों का आत्मा इन्द्र अपने आपको अपूर्ण-अपर्याप्त समझता है क्योंकि अकेला प्राणी रमण नहीं कर सकता-‘तस्मादेकाकी न रमते तद् द्वितीयमैच्छत्।’ अत: जब तक पुरुष दार-संग्रह यानी विवाह नहीं कर लेता तब तक वह अधूरा रहता है।
काम और आहार समानधर्मा हैं। जिस प्रकार भोज्य पदार्थ खाने से शरीर में रोग होते हैं फिर भी शरीर-धारण के लिए भोजन करना ही पड़ता है। उसी प्रकार काम से मानसिक-विकार, सामाजिक अपवाद उत्पन्न होते हुए भी उसे त्यागा नहीं जा सकता। यह स्वाभाविक प्रवृत्ति है। काम से संसार का उद्भव और विकास हुआ है, काम आचरण न किया जाए तो सृष्टि शून्य हो जाए।
खाई जाने वाली वस्तु अन्न है, खाने वाला अन्नाद है। भोजन चक्र में अन्नाद ही अन्न बन जाता है तथा अन्न भी अन्नाद रूप में दिखाई देता है। सर्वमिदमन्नं सर्वमिदमन्नाद: श्रुति के अनुसार सृष्टि की सभी वस्तुएं अन्न भी है तथा अन्नाद भी। अन्न के इस विशद् अर्थ में आहार और काम इन दोनों शब्दों में कोई अन्तर नहीं रह जाता। अन्न का अर्थ है भोग्य-अध्यात्म के माध्यम से।
अस्तित्व की कामना ही आदिशक्ति या मूल शक्ति है। इसी से दारैषणा, लोकैषणा और वित्तैषणा की अभिव्यक्ति होती है। ‘मैं रहूं’ मेरी सत्ता पृथक् रहे – यह अस्तित्व की कामना का एक अंग है। अपनी रक्षा, अपनी अभिवृद्धि, शरीर रक्षा के लिए आहार की तृष्णा शरीरगत पदार्थ-सार की पूर्ति करती है।
शरीर ही ब्रह्माण्ड: क्षीरसागर योषा-वृषा का आशय
क्षुधा, प्यास या यश की तृष्णा जो मानसिक शरीर के लिए आहार है, लोकैषणा का यही आदि स्वरूप है। ‘मैं एक से अनेक हो जाऊं’ ‘मैं सारे अर्थगत का प्रभु बन जाऊ’ ऐसी वित्तैषणा तृष्णा का दूसरा रूप है। सन्तान पैदा करके मैं अनेक हो जाऊं, साहचर्य भाव के लिए मैथुन-तृष्णा, अपने आधे भाग स्त्री की इच्छा, अधिकार और शक्ति की इच्छा आदि इस प्रकार की प्रमुख इच्छाएं तृष्णा का तीसरा स्वरूप है।‘अस्तित्व की वासना’ की अभिव्यक्ति आहार ग्रहण में हुआ करती है। यही वासना सारी विश्व क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं का मूल है। अस्तित्व की वासना के जितने भी रूप हैं वे सब काम हैं। मुण्डकोपनिषद् पुरुष के उन्नीस मुख बताता है-5 ज्ञानेन्द्रिय, 5 कर्मेन्द्रिय, 5 प्राण, मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त।
जिस प्रकार संसार की अनन्त इच्छाएं लोकैषणा, पुत्रैषणा और वित्तैषणा – तीन भागों में बंटी हैं उसी प्रकार विवाह-सुख तीन प्रकार के भावों पर निर्भर करता है – सन्तानोत्त्पति, काम सम्बन्धी समस्याओं के प्रति आदर्श भाव, उत्तरदायित्व का निर्वाह, एक दूसरे के प्रति श्रद्धा, उच्च भाव और हित-कामना।
शरीर ही ब्रह्माण्ड: योषा-वृषा सृष्टि के आधारभूत तत्त्व
अध्यात्मवाद का सार्वभौम सिद्धान्त है कि एक ही तत्त्व के दो विभिन्न रूप के विकास होते हैं। एक विकास में जड़ का प्राधान्य रहता है, दूसरे प्रकार के विकास में चैतन्य का प्राधान्य रहता है। स्त्री और पुरुष दोनों की सत्ता पृथक् और अपूर्ण है। दोनों पूर्णता पाने के लिए विकल होते हैं तो उनकी यह विकलता ही आकर्षण है।दोनों एक होने की अभिलाषा रखकर एक दूसरे के प्रति आकृष्ट होते हैं। स्त्री का जो स्त्रीत्व है, तारुण्य भाव है वही पुरुष रूप में पृथक् होकर फिर मिलता है। दोनों के मिलन पर शुक्र के आधान के साथ पुरुष, स्त्री के गर्भाशय में प्रवेश करता है।
परिवद्र्धित हो यथासमय स्त्री शरीर से पृथक् होता है लेकिन विकास जारी रहता है। शिशु से किशोर-तरुण होकर फिर वैसी ही स्त्री से मिलन करता है। क्रम चलता रहता है। स्त्री और पुरुष दोनों ने एकरूपता, अभिन्नता, पूर्णता प्राप्त कर फिर जन्म लिया।
सूर्य अपनी शक्ति से पृथ्वी का रस ग्रहण करता है और चन्द्रमा पृथ्वी पर सुधावर्षण करता है। सौर तत्त्वयुक्त स्त्री का रज चान्द्रतत्त्व युक्त पुरुष के शुक्र को खींच कर अपने में धारण करता है। यही स्त्री-पुरुष के परस्पर आकर्षण और प्रेम का मुख्य कारण है।
क्रमश: