अगर हम तंजानिया के सेरेनगेटी राष्ट्रीय अभ्यारण्य जाते हैं, तो हम सिक्के के दूसरे पहलू को देख सकते हैं। वह मनुष्यों का ही एक ऐसा संसार है जहां वे अपने पूर्व जन्मों के कर्मों को जीते हुए दिखाई देते हैं। विभिन्न प्रजातियों के रूप में होते हुए भी वे व्यवस्थित जीवन जीते हैं।
एक पहाड़ी की चोटी पर बैठकर देखिए लाखों की तादाद में जानवर पक्षी एक-दूसरे से मनुष्यों के समान व्यवहार करते हुए दिखाई देते हैं। कैसे हर माँ अपने बच्चे की परवाह करती है। शेरनी हो अथवा चिडिय़ा हर कोई अपने बच्चे को सुरक्षित रखना चाहती है। एक प्रहरी के रूप में। पिता के समान अपने बच्चों को हर सुरक्षा प्रदान करती है।
माता और पिता की भूमिका ब्रह्माण्ड में सभी स्तरों पर सामान है। जब बीज क्षेत्र में बोया जाता है और उसी क्षण वह बीज मिट्टी से आवरति हो जाता है। अगर आप एक शेर के बच्चे के पास जाते हैं तो देखिए कैसे मादा अपनी पूरी आंतरिक शक्ति के साथ आप पर आक्रमण कर देती है।
जैसे एक नर शेर करता है। संतान के समान वह भी नर के साथ रहती है। वह बच्चे को केवल उसके पिता के लिए धारण करती है। वह जानती है कि बच्चा उसी का कहलाएगा। वह केवल जन्म ही नहीं देती, वरन् उसकी सुरक्षा के लिए संकल्पित भी होती है। वह किसी भी शत्रु से लड़ सकती है।
सृष्टि की आरंभिक अवस्था में केवल ब्रह्म था, ऋत अवस्था में। जिसका कोई केंद्र नहीं था, कोई परिधि नहीं थी। ऋतसोम और ऋतअग्नि से कोई निर्माण संभव नहीं हो सकता। अग्नि में आहूत सोम जल जाता है। केवल अग्नि ही शेष रहता है। चेतन और अचेतन सभी प्राणी अग्नि ही हैं। ऋत अग्नि और ऋत सोम से पहले ब्रह्मा का निर्माण हुआ। यही स्वयंभू कहे जाते हैं। यह अग्नि प्राणों की सत्य अवस्था है। अकेला अग्नि निर्माण नहीं कर सकता, उसको सोम की आवश्यकता होती है।
स्वयंभू की अग्नि हेतु वहां पारमेष्ठ्य सोम उपलब्ध रहता है। निर्माण के लिए सोम को आप: में परिवर्तित होना आवश्यक है। आप: में अग्नि व सोम दोनों रहते हैं। जहां पर सोम रूप बीज का वपन किया जा सके। अग्नि सोम का यह प्रथम युग्म है। सभी स्तरों पर नवीन विश्व की सर्जना का यही रहस्य है। सोम केवल निर्माण हेतु कामना है। अत: स्वयंभू स्वयं आप: में प्रविष्ट हो जाता है। ब्रह्मा को परमेष्ठी लोक रूप सौम्या के भीतर अग्नि कुण्ड (दूसरा युग्म) तैयार करना पड़ता है। तब यह अग्नि स्त्री कहलाता है।
स्त्री संस्थ्यापनधर्मा होती है। यह कार्य तप: लोक में होता है जहां ब्रह्मा के स्वेदन में पारमेष्ठ्य सोम मिलता है। तब आप: सृजित होता है। आप: तथा स्वयंभू तीसरा युग्म है। तब स्वयंभू (अग्नि) आप: (बीज) में प्रविष्ट हो जाता है। यह ही ब्रह्माण्ड का शुक्र है। जब कृष्ण कहते हैं कि-
‘मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन् गर्भं दधाम्यहम्।
संभव: सर्वभूतानां ततो भवति भारत।।’ (गीता14/3)
तब वह संकेत करते हैं कि इस स्त्रैण महान को नारी शरीर में निर्मित करने वाला नर ही है। धरती मां के समान वह बच्चे को गर्भ में धारण करती है तथा अवधि पूर्ण होने पर उसको पूर्णत: पकाकर जन्म देती है। बीज यहां सूक्ष्म से स्थूल रूप में आता है। आकार धारण करता है। सभी योनियों में यह प्रक्रिया समान है। जब जीव पंचाग्नि के माध्यम से धरती पर आता है, तब हर स्तर पर वृषा ही योषा में मह:लोक को निर्मित करता है।
जो भी हम खाते हैं, वह सोम है। पुरुष और स्त्री दोनों ही समान अन्न खाते हैं। किन्तु पुरुष शरीर में यह सोम रूप में ही शेष रहता है, शुक्र या बीज रूप में। जबकि नारी शरीर में यह अग्नि में परिवर्तित हो जाता है। रक्त में प्रविष्ट होकर यहीं रुक जाता है। जबकि पुरुष शरीर में यह धातुओं में यात्रा करता हुआ शुक्र रूप में सृष्टि निर्माण का कारक बनता है। स्त्री शरीर में वह कौनसा तत्त्व है जो इसे रक्त से आगे जाने से रोकता है?
स्त्री शरीर में चान्द्र मास के हिसाब से रक्त की शुद्धि होती है। अत्रि प्राण बाहर निकलता है। यह अत्रि परमेष्ठी में भृगु और अंगिरा के साथ उत्पन्न होता है। और पारदर्शिता को रोककर निर्माण में अहम् भूमिका निभाता है। शरीर में महानात्मा की प्रतिष्ठा रक्त ही है। महानात्मा ही विश्व सृजन का मूल है। स्त्री शरीर में बीज की उत्पत्ति ही नहीं है।
सूर्य और चन्द्र ग्रहण में भी अत्रिप्राणों का प्रभाव होता है। इन दिनों में स्त्री को मंदिर में, रसोई में अथवा अन्य पवित्र स्थलों पर प्रवेश की अनुमति नहीं होती। मासिक धर्म के प्रारंभ होने के प्रथम दिन से लेकर राजेनिवृत्ति होने तक एक स्त्री गर्भधारण की क्षमता रखती है। इसके पश्चात वो तो मात्र नारी ही रह जाती है और गर्भधारण में समर्थ नहीं रहती। इसके पश्चात उसको स्त्री नहीं कहा जा सकता है। 50 वर्ष की आयु में मासिक स्राव चक्र रुक जाता है।
संतानोत्पत्ति का यह कालचक्र आज घटकर लगभग 20 वर्ष रह गया है। जबकि पहले यह ३५ वर्ष हुआ करता था। इसका मुख्य कारण विवाह में देरी ही है। इसके साथ ही प्रजनन का यह तंत्र कमजोर हो रहा है और गर्भधारण में अनेक मुश्किलें आ रही है।
रजस्वला होने से पूर्व और रजोनिवृत्ति के पश्चात एक नारी के व्यवहार में भिन्नता दिखाई देती है। कन्या भविष्य के लिए जीती है। भूतकाल में नहीं है। अपने भविष्य के सपने देखती है जबकि एक स्त्री, सशक्त नारी अपने वर्तमान में जीती है। जबकि एक स्त्री जिसका रजोनिवृत्ति अवस्था हो चुकी है। वह अपने परिवार के लिए जीती है। समाज के लिए जीती है। वह अपने परिवार के लिए फल निर्मित कर चुकी है। हर किसी को अपनी छांव और परवरिश में रखना चाहती है, जैसे चिडिय़ा अपने बच्चों को घोंसलों में रखती है।
वह जीवन दर्शन के प्रति अपने पति को जो 25 वर्षों तक पढ़ाती रही, उस को दोहराती है। कैसे छोटों से, बड़ों से, समान आयु वर्ग से, चेतन और अचेतन से व्यवहार करें। यह सब उसको याद दिलाती है। ये सब चीजें उसी को सिखाती है जिससे वह प्रेम करती है। जैसे किसी एक भगवान को हम पूजा करने के लिए चुनते हैं, यहां पर उस प्रेम मूर्ति के रूप में पति ही होता है। जहां वह पे्रम के सभी आयामों आकर्षण, श्रद्धा, मातृत्व आदि सभी भावों को जीती है।
ब्रह्म के विवर्त को विस्तारित कर चुके इस रूप में हमने अपना कर्तव्य पूर्ण किया। अब हमें पुन: अपने घर लौटने की तैयारी कर लेनी चाहिए। जहां से हमारा आत्मा इस संसार में आया था। हमें पुन: उसी से मिलना है। हमारा आगे का जीवन उस तैयारी के लिए हैं जो हमें ब्रह्म के साथ एकाकार करवा दे।
यह यात्रा वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम के रूप में भारतीय पुरुषार्थ परंपरा में समाहित है। हम जल के रूप में संसार में आए थे। अब हमें पुन: लौटने के लिए अग्नि के सहयोग की आवश्यकता है। जो हमें अपने अद्र्धांग-जीवन साथी से मिलता है। दोनों का एक साथ उध्र्वारोहण होता है।
क्रमश:
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नोट:- संस्थ्यापनधर्मा-स्त्री धारण-पोषण करने वाली है। धारण-रक्षण से जुड़ी होती है। असुरक्षा, संकोच, माधुर्य और चातुर्य इसके विशेष गुण हैं। जीवन व्यवहार की छोटी-बड़ी सभी बातों से इसका जुड़ाव रहता है।
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