प्रशासनिक सेवा हो या पुलिस सेवा, उनके पदों की संख्या बढ़ती जा रही है। पहले एक विभाग में एक सचिव होता था। अब अतिरिक्त मुख्य सचिव, प्रिंसिपल सचिव जैसे पद हर विभाग में बन गए। जिलों में सिर्फ एक कलक्टर होता था। अब संभागीय आयुक्त, अतिरिक्त कलक्टर जैसे अनेक पदों पर आइ.ए.एस. सेवा के अफसर तैनात होने लग गए। कई विभागों के मुखिया इसी सेवा से बन गए। अब तो नगर निगमों में भी आइ.ए.एस. बड़ी संख्या में लगाए जाने लगे हैं।
यही हाल पुलिस सेवा का है। पहले पूरे राज्य को एक आइ.जी. (पुलिस महानिरीक्षक) संभालता था। अब महानिदेशक, अतिरिक्त महानिदेशक, कमिश्नर जैसे अनेक पद हो गए। आइ.जी., डी.आइ.जी. जैसे पदों की तो भरमार है।
इसके विपरीत कर्मचारियों की स्थिति है। विभिन्न सरकारी विभागों में लगभग दो लाख पद खाली हैं। काम संविदाकर्मियों से चलाया जा रहा है। राजस्थान में करीब एक लाख साठ हजार संविदाकर्मी कार्य कर रहे हैं। इन्हें कर्मचारियों वाले पदनाम की बजाय विद्यार्थी मित्र, पंचायत सहायक, लोकजुंबिश कर्मी, पैरा टीचर्स, एनआरएचएम कर्मी नाम दे दिए गए हैं। हर बजट में हजारों भर्तियों की घोषणा की जाती है, पर 20-30 प्रतिशत से आगे नहीं बढ़ती।
दूसरी ओर अफसरों के पद बढ़ाने की मांग ही नहीं की जाती, पद समय-समय पर बढ़ा दिए जाते हैं। जो काम पहले एक अफसर संभालता था, उसके लिए चार अफसर तैनात किए जाते हैं।
सरकारों ने भी अब दीर्घकालीन नीतियां बनाना छोड़ दिया। उन्हें जैसे-तैसे अपने पांच साल गुजारने होते हैं। आधा कार्यकाल वादे करने में निकलता है और आधा उनसे बचने में। असली तंत्र अफसरशाही के हाथ में रहता है। फिर कहावत ‘अंधा बांटे रेवड़ी…’ चरितार्थ क्यों नहीं होगी।
संविदा पर नियुक्तियां ऐसी बुराई है, जिससे न कर्मचारियों का भला होता है, न सरकार का और न प्रदेश का। इसलिए कोई न कोई ऐसा रास्ता निकालना चाहिए कि अब तक संविदा पर लिए सभी कर्मचारी स्थाई हो जाएं और भविष्य में जो भर्तियां हों, संविदा की बजाय नियमित पदों पर हों। अफसरों के भरोसे तो ऐसा रास्ता निकलेगा नहीं। संविदा पर भर्ती के बीस फायदे गिना देंगे। मानवीयता नाम का शब्द उनके शब्दकोष में होता नहीं है। यदि सरकार संवेदनशीलता से कदम नहीं उठाएगी तो यह खाई बढ़ती ही जाएगी।