कहने को भारत में हम उसे लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहते हैं लेकिन उस स्तम्भ की सफेदी, प्लास्टर और ईंट निकालने में कोई पीछे नहीं रहता। वर्ष 2017-18 का, राजस्थान सरकार का विवादास्पद काला कानून इसका ताजा और खुला उदाहरण है। पर्दे के पीछे तो यह कहानी रोज चलती है। मनमाफिक नहीं छपने या खिलाफ छापने पर माफिया के हाथों पत्रकार मारे तक जाते हैं। पानी जब सिर से गुजरता है, तब मीडिया को सहारा और संरक्षण केवल न्यायपालिका से मिलता है। दुनिया के अन्य देशों से ज्यादा भारत में न्यायपालिका ही मीडिया की आजादी की रक्षा करती आई है। चिंता तब होती है, जब रक्षा करने वाला ढुलमुल होता नजर आता है।
बेंगलूरु की एक स्थानीय अदालत का मामला ताजातरीन है जिसमें एक राजनीतिक दल के एक प्रत्याशी के खिलाफ लगे आरोपों पर कोर्ट ने 49 मीडिया और सोशल मीडिया घरानों पर उस उम्मीदवार के खिलाफ कुछ भी छापने पर रोक लगा दी। माननीय न्यायालय का पूरा सम्मान है, लेकिन क्या ऐसे आदेश मीडिया की स्वतंत्रता का गला घोंटने वाले आदेश की श्रेणी में नहीं आएंगे? यदि वह आदेश किसी एक मामले से जुड़े आरोपों पर आता, तब भी बात समझ में आती। लेकिन सम्बंधित व्यक्ति के, जो कि राजनीति से जुड़ा है, के खिलाफ कुछ भी न छापने की पाबंदी को क्या माना जाए? राजनीति से जुड़े लोगों के खिलाफ ऐसे आरोप लगते रहते हैं और चुनाव के मौकों पर तो इनकी बाढ़ सी आती है। भारतीय राजनीति में तो आज यह फैशन-सा बन गया है।
सरकार हो या विपक्ष या प्रधानमंत्री से लेकर विपक्ष का छोटे से छोटा नेता, सब आरोपों के संदर्भ में ‘मारो और भागो’ की रणनीति पर चलते हैं। चुनाव हुए नहीं, रिजल्ट आए नहीं कि उन आरोपों को सब भूल जाते हैं। उन आरोप-प्रत्यारोपों की गठरी को अपना कंधा देने वाला मीडिया ऐसे में अपने आपको ठगा-सा महसूस करता है। ऐसे मामलों से भविष्य में न्यायपालिका की स्थिति भी कहीं ‘अफसोसजनक’ न बने, इसके लिए जरूरी है कि वह अपने निर्णयों पर किसी को भी अंगुली उठाने का मौका न दें। उसे तो ऐसे आरोपों की जांच व उस पर कठोर और त्वरित सजा का ऐसा तंत्र बनाना चाहिए कि किसी को भी किसी पर असत्य आरोप लगाने की हिम्मत ही नहीं हो और न ही कोई स्वतंत्र एवं निष्पक्ष लेखन करने वाले मीडिया को किसी भी तरह से नियंत्रित करने का प्रयास कर पाए। इस मामले में भी ऊपर की अदालतों को आगे आकर जो भी सुधारात्मक कदम उठाने हों, उठाने चाहिए ताकि तथ्यों के साथ लिखने वाले प्रोत्साहित हों, हतोत्साहित नहीं हों।