भारत की सांस्कृतिक संपन्नता ने न केवल विदेशी यात्रियों और विद्वानों को आकर्षित किया, बल्कि लुटेरों और औपनिवेशिक शक्तियों का भी ध्यान खींचा! सोने की चिडिय़ा कहे जाने वाले इस देश को लूटने वाले बाहुबल और बुद्धिबल से देश की संपत्ति, ज्ञान और परंपराओं को विदेशी धरती पर ले गए। दुर्भाग्यवश, भारत का मौलिक ज्ञान, जिसे यहां के विद्वानों ने पीढिय़ों से संजोया था, विदेशी शोधार्थियों ने अपने लाभ के लिए अनुवाद कर अपनाया। भारत की मूर्त धरोहरें- उसके स्मारक, मंदिर और प्राचीन संरचनाएं गौरवशाली इतिहास की साक्षी हैं। एक और उदाहरण हाथियों से जुड़ी पहली वैज्ञानिक पुस्तक का है, जिसकी रचना केरल के मालाबार में हुई।
इस दिशा में भारत की स्थिति में सुधार वर्ष 2004 के बाद देखने को मिला। इस वर्ष 17 स्मारकों ने यूनेस्को वैश्विक धरोहर स्थल सूची में जगह बनाई। ये एक अभूतपूर्व सफलता थी। इसके बाद ये क्रम लगातार चालू है और हमारे राष्ट्रीय महत्त्व के स्मारक विश्व धरोहर स्थल सूची में स्थान पा रहे हैं। आज ये आंकड़ा 43 तक पहुंच गया है। एक ओर भारत की उपस्थिति मूर्त विरासत सूची में अग्रणी रूप से दर्ज हो रही है, वहीं देश की महान परंपराओं, कलाओं को वैश्विक पटल पर पहचान दिलाने के लिए मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत की प्रतिनिधि सूची में भी देश की महत्त्वपूर्ण धरोहरों को शामिल किया गया। इस क्षेत्र में हमारे देश की सांस्कृतिक विविधता के दर्शन हुए। जैसे इस वर्ष 2024 में पारसी समुदाय द्वारा माने जाने वाला उत्सव नवरोज को स्थान मिला। गुजरात का गरबा, कोलकाता की दुर्गा पूजा, कुंभ मेला, योग, शांति निकेतन, लद्दाख का बौद्ध जप: ट्रांस-हिमालयी लद्दाख क्षेत्र, जम्मू और कश्मीर, भारत में पवित्र बौद्ध ग्रंथों का पाठ, छाऊ नृत्य, राजस्थान के कालबेलिया लोक गीत और नृत्य, मुदियेट्टु, केरल का अनुष्ठान थिएटर और नृत्य नाटक, कुटियाट्टम, संस्कृत रंगमंच, वैदिक मंत्रोच्चार की परंपरा और रामलीला, रामायण का पारंपरिक प्रदर्शन आदि ने मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत की प्रतिनिधि सूची में जगह बनाई।
आज की सबसे बड़ी आवश्यकता यह है कि हम अपनी मूर्त और अमूर्त विरासत को सहेजने के साथ उसका प्रमाणिक रूप से दस्तावेजीकरण करें ताकि भावी पीढ़ी जब इतिहास के पन्ने पलटे तो उसे किसी विदेशियों द्वारा लिखित आधी अधूरी जानकारी न मिले, बल्कि अपना स्वदेशी पक्ष पढऩे को मिले, जिस पर वह गर्व कर सकें।