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सांस्कृतिक विरासत यानी शांति, ज्ञान और समृद्धि की यात्रा

डॉ. कायनात काजी, पर्यटन मामलों की विशेषज्ञ

जयपुरJan 17, 2025 / 06:41 pm

Hemant Pandey

गौरवशाली धरोहरें: भारत की मूर्त और अमूर्त विरासतों को सहेजने और दस्तावेजीकरण की आवश्यकता है

गौरवशाली धरोहरें: भारत की मूर्त और अमूर्त विरासतों को सहेजने और दस्तावेजीकरण की आवश्यकता है


विश्व की सबसे प्राचीन और महानतम सभ्यता भारत ने समूचे विश्व को वसुधैव कुटुंबकम का पाठ पढ़ाया। यह वह भूमि है जहां से बौद्ध धर्म के संस्थापक बुद्ध ने शांति और करुणा का संदेश दिया। भारत की विविध और समृद्ध संस्कृति ने अनगिनत कलाओं और परंपराओं को जन्म दिया। आदिम समाजों से लेकर घने जंगलों में रहने वाले वनवासी जैसे गोंड, भील, संथाल, खासी और आपातानी तक ने प्रकृति के साथ सामंजस्यपूर्ण जीवन शैली को अपनाया। आज भी ये समाज सस्टेनेबिलिटी का जीवंत उदाहरण प्रस्तुत करते हैं।

भारत की सांस्कृतिक संपन्नता ने न केवल विदेशी यात्रियों और विद्वानों को आकर्षित किया, बल्कि लुटेरों और औपनिवेशिक शक्तियों का भी ध्यान खींचा! सोने की चिडिय़ा कहे जाने वाले इस देश को लूटने वाले बाहुबल और बुद्धिबल से देश की संपत्ति, ज्ञान और परंपराओं को विदेशी धरती पर ले गए। दुर्भाग्यवश, भारत का मौलिक ज्ञान, जिसे यहां के विद्वानों ने पीढिय़ों से संजोया था, विदेशी शोधार्थियों ने अपने लाभ के लिए अनुवाद कर अपनाया। भारत की मूर्त धरोहरें- उसके स्मारक, मंदिर और प्राचीन संरचनाएं गौरवशाली इतिहास की साक्षी हैं। एक और उदाहरण हाथियों से जुड़ी पहली वैज्ञानिक पुस्तक का है, जिसकी रचना केरल के मालाबार में हुई।
विश्व में भारत ही एक ऐसा देश है जिसने हाथी जैसे विशाल एवं जंगली जंतु को न केवल पालतू बनाया, बल्कि सेना में घोड़ों से भी ऊपर स्थान दिया। किसी भी राजा के कद का अनुमान उसके पास हाथियों की संख्या से लगाया जाता था। कहते हैं मालाबार में मलयालम युग (कोल्लावर्षम) 761 से कुछ शताब्दियों पहले नीलकंठ द्वारा मतंगलीला नाम से इस पुस्तक की रचना संस्कृत में की गई थी। जिसे 18वीं शताब्दी में येल विश्वविद्यालय के एक विद्वान ने अंग्रजी में अनुवाद किया। 12 अध्यायों की यह पुस्तक हाथियों के लालन-पालन, वर्गीकरण, स्वास्थ्य से जुड़ी विश्व की सबसे पहली और प्रमाणिक पुस्तक मानी जाती है। दु:ख की बात यह है कि आज यह भारतीयों के पास अपने मूल रूप में उपलब्ध नहीं है। इसका मुख्य कारण रहा कि भारतीयों ने कभी श्रेय लेने के लिए ज्ञान की रचना नहीं की और दिल खोल ज्ञान को बांटा। इसीलिए भारत की मूर्त और अमूर्त विरासत की कद्र बड़ी देर से हुई। यूनेस्को वैश्विक धरोहर स्थल सूची में भारत की इक्का-दुक्का धरोहर साल में स्थान पाती थीं। इसका एक बड़ा कारण यह भी होता है कि यूनेस्को वैश्विक धरोहर स्थल सूची में स्थान पाने के लिए एक लंबी प्रक्रिया से होकर गुजरना होता है। जिसमें उस स्थल पर ढांचागत सुविधाओं को दुरुस्त करने के अलावा संरक्षण से जुड़ी छोटी से छोटी बात बड़ा महत्त्व रखती है।
ज्ञात हो कि यूनेस्को द्वारा विरासत की रक्षा के लिए एक अंतरराष्ट्रीय आंदोलन बनाने का विचार प्रथम विश्व युद्ध के बाद उभरा। विश्व सांस्कृतिक और प्राकृतिक विरासत के संरक्षण से संबंधित 1972 का कन्वेंशन दो अलग-अलग आंदोलनों के विलय से विकसित हुआ। पहला सांस्कृतिक स्थलों के संरक्षण पर ध्यान केंद्रित करना और दूसरा अन्य प्रकृति के संरक्षण से संबंधित हैं। हालांकि भारत ने आरंभ से ही इसमें हिस्सा लिया, लेकिन उपस्थिति नाम मात्र की ही दर्ज करा सका।

इस दिशा में भारत की स्थिति में सुधार वर्ष 2004 के बाद देखने को मिला। इस वर्ष 17 स्मारकों ने यूनेस्को वैश्विक धरोहर स्थल सूची में जगह बनाई। ये एक अभूतपूर्व सफलता थी। इसके बाद ये क्रम लगातार चालू है और हमारे राष्ट्रीय महत्त्व के स्मारक विश्व धरोहर स्थल सूची में स्थान पा रहे हैं। आज ये आंकड़ा 43 तक पहुंच गया है। एक ओर भारत की उपस्थिति मूर्त विरासत सूची में अग्रणी रूप से दर्ज हो रही है, वहीं देश की महान परंपराओं, कलाओं को वैश्विक पटल पर पहचान दिलाने के लिए मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत की प्रतिनिधि सूची में भी देश की महत्त्वपूर्ण धरोहरों को शामिल किया गया। इस क्षेत्र में हमारे देश की सांस्कृतिक विविधता के दर्शन हुए। जैसे इस वर्ष 2024 में पारसी समुदाय द्वारा माने जाने वाला उत्सव नवरोज को स्थान मिला। गुजरात का गरबा, कोलकाता की दुर्गा पूजा, कुंभ मेला, योग, शांति निकेतन, लद्दाख का बौद्ध जप: ट्रांस-हिमालयी लद्दाख क्षेत्र, जम्मू और कश्मीर, भारत में पवित्र बौद्ध ग्रंथों का पाठ, छाऊ नृत्य, राजस्थान के कालबेलिया लोक गीत और नृत्य, मुदियेट्टु, केरल का अनुष्ठान थिएटर और नृत्य नाटक, कुटियाट्टम, संस्कृत रंगमंच, वैदिक मंत्रोच्चार की परंपरा और रामलीला, रामायण का पारंपरिक प्रदर्शन आदि ने मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत की प्रतिनिधि सूची में जगह बनाई।

आज की सबसे बड़ी आवश्यकता यह है कि हम अपनी मूर्त और अमूर्त विरासत को सहेजने के साथ उसका प्रमाणिक रूप से दस्तावेजीकरण करें ताकि भावी पीढ़ी जब इतिहास के पन्ने पलटे तो उसे किसी विदेशियों द्वारा लिखित आधी अधूरी जानकारी न मिले, बल्कि अपना स्वदेशी पक्ष पढऩे को मिले, जिस पर वह गर्व कर सकें।

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