तालिबान के सर्वोच्च कमांडर मुल्ला उमर का यह कथन काफी हद तक सही साबित हुआ कि ‘दुनियाभर की घडिय़ां अमरीकियों के पास हैं, लेकिन वक्त हमारे साथ है।’ तालिबान के खिलाफ इस जंग में अमरीका को अपने 2,400 फौजी गंवाने पड़े। अब तक वह 150 लाख करोड़ रुपए से ज्यादा खर्च कर चुका है। अब जबकि फौज की वापसी पर फैसला हो चुका है, अमरीका के पास गिनाने के लिए कई उपलब्धियां हैं। यह कि ओसामा बिन लादेन मारा गया, सामूहिक रक्षा जिम्मेदारियों के लिए नाटो देशों को एकजुट किया, पाकिस्तान को तटस्थ रहना सिखाया, आतंकी नेटवर्क को तहस-नहस किया, सऊदी अरब और तालिबान के रिश्तों के तार काटे आदि।
इन तथाकथित उपलब्धियों से इतर गौर किया जाए, तो अफगानिस्तान में हालात बद से बदतर हुए हैं। इस देश में सभ्यता सदियों से अवनति की ओर लुढ़कने को अभिशप्त है। उन्नीसवीं सदी में वहां रूस और ब्रिटेन ने ‘बड़ा खेल’ खेला। फिर 1979 में सोवियत फौज ने काबुल में दाखिल होकर खून-खराबा मचाया। तभी से अफगानिस्तान जंग के मैदान में तब्दील होने लगा था। रही-सही कसर मध्ययुगीन कल्पना लोक में जीने वाले तालिबान ने पूरी कर दी, जिसने अफीम और सूखे मेवे उगलने वाली जमीन पर उन्मादी जिहादियों की प्रयोगशालाएं खड़ी कर दी। बीस साल लम्बे महायुद्ध के बावजूद इन प्रयोगशालाओं का पूरी तरह सफाया नहीं हुआ है। भारत समेत दूसरे दक्षिण एशियाई देशों की चिंता का यह सबसे बड़ा सबब है।
अमरीकी फौज जब तक अफगानिस्तान में थी, तालिबान गुफाओं में दुबका हुआ था। फौज हटने के बाद उसके फिर सक्रिय होने का खतरा मंडरा रहा है। भारत के लिए इस लिहाज से यह बड़ा खतरा है कि तालिबान उसके खिलाफ जैश-ए-मोहम्मद और लश्कर-ए-तैयबा सरीखे आतंकी संगठनों की मदद करता रहा है। भारतीय संसद पर हमला करने वाले जैश के आतंकियों ने तालिबान से प्रशिक्षण हासिल किया था। तालिबान को हद में रखने के लिए भारत को पड़ोसी देशों के साथ मिलकर कूटनीतिक अभियान शुरू कर देना चाहिए। अफगानिस्तान में राजनीतिक स्थिरता और शांति बहाली के लिए भी भारत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।