जलवायु में परिवर्तन का सबसे बड़ा कारक आज भी जीवाश्म ईंधन है जिसका इस्तेमाल ऊर्जा उत्पादन के प्रमुख स्रोत के तौर पर जारी है। यही हाल रहा तो अगली सदी के शुरू होते-होते तापमान की वृद्धि ढाई से तीन सेल्सियस तक हो जाएगी जो तय लक्ष्य से लगभग दोगुनी होगी। यदि इसी गति से तापमान वृद्धि जारी रही तो आर्थिक, भौगोलिक और सामाजिक हानि के साथ सृष्टि की जैव विविधता पर भी विषम प्रभाव पड़ेंगे। भले ही तापमान में हो रही वृद्धि का एहसास हमें न हो रहा हो किंतु आपदाओं से सभी वाकिफ हैं। आशंका तो इस बात की है कि कहीं तापमान इतना ना बढ़ जाए कि उसे कम करना लगभग असंभव हो जाए। वह स्थिति विनाश की ओर ले जाएगी।
हाल ही संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम ने ‘नो मोर हॉट एअर… प्लीज’ शीर्षक से जारी ‘इमिशंस गैप रिपोर्ट-2024’ में राष्ट्रों से कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने के लिए उनके अपने-अपने निर्धारित योगदान को लेकर और बेहतर वायदे का आह्वान किया है। इसके अनुसार, यदि तापमान लक्ष्य डेढ़ डिग्री सेल्सियस को हासिल करना है तो उत्सर्जन में 2030 तक 42 प्रतिशत और 2035 तक 57 प्रतिशत तक की कटौती आवश्यक है। यह तभी संभव है जब समस्त राष्ट्र ऊर्जा उत्पादन के लिए सूर्य और वायु को प्रमुख स्रोत बनाते हुए वन क्षेत्र का विस्तार करने को अधिकाधिक प्रोत्साहन दें। निर्माण, परिवहन और उद्योगों को भी पर्यावरण सम्मत बनाने की नितांत आवश्यकता है। इस बाबत राष्ट्रीय और स्थानीय स्तर पर नीतिगत परिवर्तन के साथ आमजन को भी उपभोक्तावादी संस्कृति से ऊपर उठकर समग्र, सतत और समेकित विकास को अपनाने की पहल करनी होगी। औद्योगिक राष्ट्रों और अधिक उत्सर्जन करने वालों से अपेक्षित है कि वे जवाबदेही से दूर भागते हुए विकासशील व अल्प-विकसित राष्ट्रों को नियंत्रण का सबक ही न सिखाएं बल्कि वे जो क्षति पर्यावरण को पहुंचा रहे हैं, उसके एवज में संतुलन कायम करने के लिए आर्थिक सहयोग दें। शर्म अल-शेख में हुए सीओपी-27 में भारत की प्रस्तावना पर हानि एवं क्षति पूर्ति हेतु कोष स्थापना पर सहमति बनी थी और दुबई के सीओपी-28 में संयुक्त अरब अमीरात ने 10 करोड़ अमरीकी डॉलर के प्रारंभिक योगदान से इसकी शुरुआत भी की थी पर इसे अपेक्षित प्रतिसाद नहीं मिला।
दुनिया में सर्वाधिक कार्बन उत्सर्जन की दृष्टि से भारत तीसरे स्थान पर है। प्रति व्यक्ति उत्सर्जन दर के आधार पर हम दुनिया में 125वें स्थान पर हैं। हालांकि हमारा प्रति व्यक्ति उत्सर्जन वैश्विक औसत का 43 प्रतिशत है। लेकिन चिंता का विषय यह है कि गत 24 वर्षों में इसमें 119 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। सन् 2000 में प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष उत्सर्जन लगभग एक टन था, जो बढ़ कर दो टन से अधिक हो गया है। वर्ष 2023 में तो अभिवृद्धि 6.7 प्रतिशत की रेकॉर्ड दर पर हुई है। प्राकृतिक संतुलन के लिए यह अच्छा लक्षण नहीं है। जनसंख्या घनत्व को देखते हुए हमारी चिंताएं अधिक हैं। संभवत: इसी के दृष्टिगत भारत ने सन् 2015 में तय लक्ष्यों में से दो महत्त्वपूर्ण लक्ष्य समय सीमा से पूर्व ही हासिल कर लिए हैं – गैर-जीवाश्म ईंधन स्रोत से लगभग 44 प्रतिशत ऊर्जा उत्पादन, और सन् 2005 के तय मानक से सकल घरेलू उत्पाद आधार पर उत्सर्जन को 33 प्रतिशत तक कम करना (यह सन् 2030 तक लक्षित था)।
भारत ने लक्ष्यों और कार्ययोजना की समीक्षा करते हुए सन् 2030 तक के लिए नवीन लक्ष्य निर्धारित किए हैं जिनमें ‘पर्यावरण के लिए जीवनशैली’ को प्रोत्साहित करने के लिए जनआंदोलन की संकल्पना सबसे महत्त्वपूर्ण है। पूर्व निर्धारित सन् 2005 के सकल घरेलू उत्पाद आधारित उत्सर्जन स्तर को 33 से 35 प्रतिशत के स्थान पर 45 प्रतिशत तक घटाना और गैर पारंपरिक स्रोत से ऊर्जा उत्पादन लक्ष्य 40 के स्थान पर 50 प्रतिशत तक बढ़ाना भी नए लक्ष्यों में शामिल है। वन व वृक्षों के माध्यम से ढाई से तीन अरब टन उत्सर्जन को कैप्चर करने का लक्ष्य भी रखा गया है। ये लक्ष्य महत्त्वाकांक्षी हो सकते हैं पर असंभव नहीं। जरूरत है नीति स्तर पर परिवर्तन के साथ वैकल्पिक स्रोतों के प्रोत्साहन की। सूक्ष्म, लघु व मध्यम उद्यमियों के माध्यम से लक्ष्य प्राप्ति तीव्र गति से होगी और रोजगार का सृजन भी होगा। भारत इस पहल में भी अग्रणी भूमिका अदा कर सकता है। सीओपी-29 मात्र चर्चा तक सीमित न रहे, अपितु धरातल पर नीति परिवर्तन का माध्यम बने तो इसकी स्वीकार्यता और सार्थकता स्थापित हो पाएगी।