डेटा सेंटरों में ऊर्जा दक्षता बढ़ाने के लिए जरूरी हैं ठोस कदम
डेटा सेंटरों में ऊर्जा दक्षता बढ़ाने के लिए आधुनिक तकनीकों का उपयोग करना होगा। पारंपरिक कूलिंग सिस्टम के स्थान पर आधुनिक और उन्नत कूलिंग तकनीकों के उपयोग को प्रोत्साहित करना होगा जिससे ऊर्जा की खपत कम हो सके।
मिलिंद कुमार शर्मा
प्रोफेसर, एमबीएम विश्वविद्यालय, जोधपुर
आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस आधुनिक युग की एक महत्त्वपूर्ण खोज है, जिसने विभिन्न क्षेत्रों में अपनी उपस्थिति दर्ज की है। यह तकनीक न केवल निजी व्यवसायों और सरकारी संगठनों के लिए अत्यंत लाभकारी सिद्ध हुई है, अपितु चिकित्सा, परिवहन, अंतरिक्ष, रक्षा, शिक्षा, और वित्त जैसे क्षेत्रों में भी तीव्रता से क्रांति ला रही है। इसका तेजी से बढ़ता उपयोग नए प्रकार के दुष्प्रभाव भी पैदा कर रहा है, विशेषकर ऊर्जा संसाधनों पर इसका दबाव बढ़ रहा है। एआइ के संचालन के लिए बड़े स्तर पर डेटा सेंटरों की आवश्यकता होती है, जो ऊर्जा की अत्यधिक खपत करते हैं। अनुमान है कि वैश्विक स्तर पर सभी डेटा सेंटर कुल विद्युत खपत का 1 प्रतिशत से अधिक उपयोग करते हैं। यह ऊर्जा खपत गंभीर पर्यावरणीय दुष्प्रभाव उत्पन्न कर रही है और हमारे पर्यावरण के लिए गंभीर चुनौती बन चुकी है। एआइ आधारित तकनीकें, यथा मशीन लर्निंग और डीप लर्निंग, भारी मात्रा में डेटा के संग्रहण, प्रसंस्करण और विश्लेषण पर आधारित होती हैं। यह कार्य डेटा सेंटरों में होता है, जहां बड़े पैमाने पर कंप्यूटर और सर्वर निरंतर कार्यरत रहते हैं। यह प्रक्रिया अधिक ऊर्जा की खपत करती है। डेटा सेंटरों में ऊर्जा की बढ़ती खपत के कारण न केवल ऊर्जा का अपव्यय होता है, अपितु इससे पर्यावरण में कई प्रकार के दुष्प्रभाव भी पड़ते हंै। यहां यह रेखांकित करना उचित होगा कि डेटा सेंटरों में ऊर्जा का उपयोग मात्र कंप्यूटिंग के लिए ही नहीं, अपितु उपकरणों को ठंडा रखने के लिए भी किया जाता है। सर्वर उपकरण अत्यधिक ऊष्मा उत्पन्न करते हैं, जिसे नियंत्रित करने के लिए कूलिंग सिस्टम का उपयोग किया जाता है। यह कूलिंग सिस्टम भी अत्यधिक मात्रा में ऊर्जा की खपत करता है।
जैसे-जैसे एआइ आधारित सेवाओं की मांग बढ़ती जा रही है, वैसे-वैसे इन डेटा सेंटरों में ऊर्जा की मांग में भी उसी अनुपात में वृद्धि हो रही है। डेटा सेंटरों में ऊर्जा खपत का एक बड़ा हिस्सा कोयला और गैस जैसे परंपरागत जीवाश्म आधारित ऊर्जा स्रोतों से पूरा किया जाता है। इससे कार्बन डाइऑक्साइड और अन्य ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन होता है, जो जलवायु परिवर्तन के सबसे बड़े कारक हैं। डेटा सेंटरों द्वारा जनित ऊष्मा और कार्बन उत्सर्जन वैश्विक तापमान को बढ़ाने में योगदान देता है। इससे हिमखंडों के पिघलने, समुद्र स्तर में वृद्धि और विभिन्न प्राकृतिक आपदाओं का खतरा बढ़ रहा है। इसके अतिरिक्त डेटा सेंटरों में कूलिंग सिस्टम के लिए बड़ी मात्रा में जल की भी आवश्यकता होती है। इससे जल संसाधनों पर अतिरिक्त दबाव बढ़ता है। साथ ही अधिक ऊर्जा खपत से वन्य जीवन और पारिस्थितिकी तंत्र पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। सूचना प्रौद्योगिकी के सभी व्यावसायिक संगठनों एवं नीति निर्धारकों को इस गंभीर चुनौती के उचित समाधानों पर गंभीर चिंतन करना होगा।
भारत में इसके लिए राष्ट्रीय डेटा सेंटर नीति बनाई है जिसके अंतर्गत डेटा सेंटरों में ऊर्जा की खपत को हरित ऊर्जा, जैसे कि सौर और पवन ऊर्जा, के माध्यम से पूरा करने पर बल दिया गया है। इससे कार्बन उत्सर्जन में कमी आएगी और पर्यावरण पर नकारात्मक प्रभाव घटेगा। भारत के प्रमुख सूचना प्रौद्योगिकी संगठन यथा इंफोसिस, टाटा कंसलटेंसी सर्विसेज इत्यादि ने अपने यहां हरित डेटा केंद्रों की भी स्थापना की है जो सौर एवं पवन ऊर्जा से सफलतापूर्वक संचालित हो रहे हैं। गुजरात में ‘गिफ्ट सिटी’ परियोजना में डेटा सेंटरों को ऊर्जा दक्ष बनाने के लिए ठंडी जलवायु के उपयोग की योजना बनाई गई है, इससे कूलिंग की लागत और ऊर्जा खपत मैं काफी कमी आने की संभावना है। डेटा सेंटरों में ऊर्जा दक्षता बढ़ाने के लिए आधुनिक तकनीकों का उपयोग करना होगा। पारंपरिक कूलिंग सिस्टम के स्थान पर आधुनिक और उन्नत कूलिंग तकनीकों के उपयोग को प्रोत्साहित करना होगा जिससे ऊर्जा की खपत कम हो सके।
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