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दिल्ली-एनसीआर में फिर गहराता सांसों पर संकट

नवंबर, 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने सख्त टिप्पणी की थी- ‘दिल्ली नरक से भी बदतर हो गई है।’ लगता नहीं कि उसके बाद भी कुछ बदला है। भविष्य में भी सुधार का दावा कोई नहीं कर सकता, क्योंकि जो समस्या का समाधान करने में सक्षम हैं, उनके एजेंडे पर तो यह समस्या नजर ही नहीं आती।

जयपुरOct 21, 2024 / 09:39 pm

Gyan Chand Patni

राज कुमार सिंह
वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक
अभी बस दशहरा बीता है, दीपावली आने वाली है। उससे पहले ही दिल्ली- एनसीआर में जहरीली होती हवा सांसों पर भारी पडऩे लगी है। एयर क्वालिटी इंडेक्स यानी एक्यूआइ बहुत खराब की श्रेणी में पहुंच चुका है। दिल्ली में औसत एक्यूआइ 293 पहुंच गया है। मूंढका, आनंद विहार, पटपडग़ंज, रोहिणी और द्वारका सेक्टर-8 क्षेत्रों में यह अभी से 300 पार जा चुका है। अतीत का अनुभव बताता है कि आने वाले दिनों में यह और बढ़ेगा। बढ़ते वायु प्रदूषण से जनता की सांसों पर गहराते संकट के समाधान के लिए सरकार के पास विभिन्न चरणों में लगाए जाने वाले प्रतिबंधों के अलावा कोई योजना नजर नहीं आती। ग्रेडेड रेस्पांस एक्शन प्लान के तहत ग्रेड-वन के प्रतिबंध दिल्ली में लागू किए जा चुके हैं। जैसे-जैसे वायु प्रदूषण बढ़ेगा, ये प्रतिबंध भी बढ़ते जाएंगे। हर साल इन्हीं दिनों गहराने वाले जानलेवा संकट के समाधान की कोई सोच देश या दिल्ली की सरकार के पास नहीं दिखती। इस विवेकहीनता और निष्क्रियता के लिए सुप्रीम कोर्ट, वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग के साथ-साथ पंजाब और हरियाणा सरकारों को भी कड़ी फटकार लगा चुका है।
ध्यान रहे कि दिल्ली में इन दिनों बढऩे वाले वायु प्रदूषण में पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों द्वारा जलाई जाने वाली पराली का बड़ा योगदान बताया जाता है। उससे निपटने के प्रयासों के दावे भी राज्य सरकारों द्वारा किए जाते हैं पर वांछित परिणाम नजर नहीं आते। वायु गुणवत्ता प्रबंधन के लिए बना आयोग भी जिम्मेदारी के निर्वाह में नाकाम नजर आता है। हाल ही सुप्रीम कोर्ट ने पराली जलाने से रोकने में पंजाब सरकार की नाकामी पर सख्त टिप्पणी की कि सरकार को स्वयं को ‘असमर्थ’ घोषित कर देना चाहिए। पंजाब और दिल्ली, दोनों ही राज्यों में क्योंकि आम आदमी पार्टी की सरकार है, इसलिए यह आप और भाजपा के बीच राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप का मुद्दा भी बनता रहता है। ध्यान रहे कि पंजाब और दिल्ली के बीच स्थित राज्य हरियाणा में भाजपा की सरकार है। उत्तर प्रदेश में भी भाजपा सरकार है, जिसके पश्चिमी क्षेत्र के किसानों पर पराली जलाने का आरोप लगता रहता है। आम आदमी की सेहत ही नहीं, जीवन से भी जुड़े इस संवेदनशील मुद्दे पर राजनीति हमारे दलों की संवेदनहीनता को उजागर करती है। हर साल जनता की सांसों पर मंडराने वाले इस संकट के स्थायी समाधान की दूरगामी योजना की पहल किसी को तो करनी चाहिए।
ऐसे जटिल मुद्दों के समाधान में सुप्रीम कोर्ट पहल करता रहा है, पर इस मामले में वह अभी तक सख्त टिप्पणियों से आगे बढ़ता नहीं दिखता और सख्त टिप्पणियों का संबंधित पक्षों पर असर नजर आता नहीं। तमाम तरह के प्रतिबंधों से उच्च वायु प्रदूषण काल में आंशिक नियंत्रण से संतुष्ट होने के बजाय दिल्ली-एनसीआर के निवासियों के लिए स्वच्छ हवा सुनिश्चित करना सरकारों की जिम्मेदारी कैसे बने-इस पर सुप्रीम कोर्ट को मार्गदर्शक निर्देश देने चाहिए, वरना सत्ता पर काबिज दल और नेता एक-दूसरे पर दोषारोपण कर लोगों की आंखों में धूल झोंकते रहेंगे। वायु प्रदूषण नियंत्रण के लिए दिवाली से पहले ही पटाखे चलाने पर प्रतिबंध लगा दिया जाता है, लेकिन लोग उस पर भी राजनीति से बाज नहीं आते। कुछ लोगों को लगता है कि पटाखे चलाए बिना ‘अंधकार पर प्रकाश की विजय’ का पर्व दीपावली मनाया ही नहीं जा सकता। पिछले साल प्रतिबंधों को धता बता कर दीपावली की रात की गई आतिशबाजी से अगले दिन वायु प्रदूषण 999 के बेहद खतरनाक स्तर पर पहुंच गया था। यह आम आदमी की सेहत, खासकर बुजुर्गों और बच्चों के लिए कितना खतरनाक साबित हो सकता है, इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि 401 से 500 तक के एक्यूआइ को भी ‘गंभीर’ माना जाता है। यह आंकड़ा भी गोपनीय नहीं है कि भारत में हर साल वायु प्रदूषण से 20 लाख मौतें होती हैं। देश में होने वाली मौतों का यह पांचवां बड़ा कारण है। इसके बावजूद दमघोंटू हवा का दोष पराली और पटाखों के सिर मढ़ कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली जाती है तो उसे संवेदनहीनता और निष्क्रियता की पराकाष्ठा ही कहा जा सकता है।
बेशक पराली जलाने से रोकने के लिए सरकारों को किसानों की समस्याओं को ध्यान में रखते हुए कुछ व्यावहारिक कदम उठाने होंगे, पर सच यह भी है कि दिल्ली-एनसीआर के वायु प्रदूषण में पराली और पटाखों का योगदान अवधि और मात्रा की दृष्टि से सीमित है। इसलिए अन्य स्थायी कारणों का निदान जरूरी है। भू-विज्ञान मंत्रालय के एक रिसर्च पेपर के मुताबिक वायु प्रदूषण में 41 प्रतिशत हिस्सेदारी वाहनों की रहती है। भवन निर्माण आदि से उडऩेवाली धूल 21.5 प्रतिशत के साथ दूसरे स्थान पर है।
दिल्ली परिवहन विभाग के आंकड़े के मुताबिक पिछले 30 साल में वाहन और उनसे होने वाला प्रदूषण तीन गुणा बढ़ गया है। फिर भी पब्लिक ट्रांसपोर्ट सिस्टम को बेहतर और विश्वसनीय बनाने की दिशा में कुछ खास नहीं किया गया। प्रदूषण नियंत्रण प्रमाणपत्र न होने पर निजी यात्री वाहनों के चालान तो बढ़े हैं, पर प्रदूषण फैलाते कॉमर्शियल वाहनों की ऑन द स्पॉट जांच कर चालान की पहल कहीं नजर नहीं आती। नवंबर, 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने सख्त टिप्पणी की थी- ‘दिल्ली नरक से भी बदतर हो गई है।’ लगता नहीं कि उसके बाद भी कुछ बदला है। भविष्य में भी सुधार का दावा कोई नहीं कर सकता, क्योंकि जो समस्या का समाधान करने में सक्षम हैं, उनके एजेंडे पर तो यह समस्या नजर ही नहीं आती।

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