क्या यह पाषाण युग है? जहां न कोई कानून और न कोई तंत्र बल्कि भैंस उसी की, जिसके पास लाठी हो! क्या धौलपुर की घटनाएं ये सवाल खड़े नहीं करतीं? लोकतंत्र में राज कानून का होता है या अपराधियों का? फिर माफिया के हौसले इतने बुलन्द कैसे हो गए कि जिला पुलिस अधीक्षक के काफिले पर ही गोलियां बरसाने लगे? इसके लिए असली जिम्मेदार कौन है? किसने इन माफिया को पनपाया, प्रश्रय दिया? क्या बढ़ता राजनीतिक दखल इस अराजकता का सबसे बड़ा कारण नहीं है? क्या असली गुनहगार वे नेता नहीं हैं, जिन्हें जनता ने कुर्सियों पर बैठाया तो लोकतंत्र की रक्षा के लिए है लेकिन वे इसे खोखला करने पर आमादा हैं?
दरअसल, नेताओं और नौकरशाहों का गठजोड़ ही इस अराजकता की जड़ है। यह गठजोड़ ही अपराधियों को सींचता और हौसला देता रहा है। समय आने पर उपयोग करता और जरूरत पडऩे पर प्रश्रय देता रहा है। इसी कारण तो नशे के कारोबार और तस्करी से आगे बढ़कर खनन, पर्यटन, चिकित्सा और शिक्षा जैसे क्षेत्र में भी माफिया हावी हो रहे हैं। राजस्थान जैसे शान्त राज्य के लिए यह अराजकता की हद है। हद यह भी है कि कानूनी पेचीदगियां इस सिलसिले को तोडऩे नहीं बल्कि आगे बढ़ाने में मदद कर रही हैं। और, कानून के रखवाले तो नेता और नौकरशाह हैं ही, तो पेचीदगियां बरकरार क्यों न रहें? ताकि धौलपुर की तरह खुद पुलिस ही अपराधियों के सामने खौफ खाती रहे। गोली चलाना तो दूर, सख्ती करने से भी हिचके। यह सोचकर कि खुद ही मुकदमेबाजी में न उलझ जाए!
लोकतंत्र में यह स्थिति कतई ठीक नहीं है। यदि विधायिका और कार्यपालिका के बीच गठजोड़ नागरिकों, समाज और कानून-व्यवस्था के खिलाफ लगातार मजबूत हो रहा हो तो न्यायपालिका को आगे आना होगा। न्याय पर हावी होते इस गठजोड़ के खिलाफ संज्ञान लेना होगा। ताकि लोकतंत्र को बचाने के लिए खुद जनता को चौथा पाया न बनना पड़े। क्योंकि जनता ही पाया बन गई, तो बाकी पायों की जरूरत ही खत्म हो जाएगी। लोकतंत्र के लिए यह भी तो ठीक नहीं होगा।