आपकी कविताओं में रूप से ज्यादा कथ्य पर जोर होता है। रूप या कविता के लिए कविता, क्या जरूरी है?
यदि कोई कवि है तो वह पहले ‘रूप’ ‘कहना’ चाहता है या ‘कथ्य’? पारंपरिक कविता को छोड़ दीजिए जिसमें कवि अपने-अपने पिंगल-शास्त्र, या उसके अपने अर्जित ज्ञान और अभ्यास के अनुसार अपनी उद्दिष्ट कृति के स्वरूप या आकार की ‘कल्पना’ करके चलते हैं। आज का कवि गंभीर प्रयोग या कौतुक के लिए भी गाहे-बगाहे ऐसा कर लेता है। लेकिन कविता पारंपरीण हो या अधुनातन, हर संजीदा सुखनसाज शुरू ही कुछ कथ्य से करता है। जब कोई पंक्ति जेहन और कागज पर उतरती है तो वह अपनी लय के साथ अपना प्रारंभिक शिल्प और रूप लेती आती है। सिद्धांत यह है कि रूप के बिना कथ्य संभव है, कथ्य के बिना कुछ भी संभव – या आवश्यक- नहीं होगा।
कविता या कहानी में प्रेमचंद , निराला की परंपरा को किस तरह देखते हैं?
आज प्रेमचंद की परंपरा को बची-खुची भारतीय मानवीय प्रतिबद्धता के रूप में ही देखा जा सकता है। क्या कभी प्रेमचन्द, या दूसरे कुछ हिंदी लेखक, पूरे भारत के प्रतिनिधि बन भी पाए थे? 1936 के बाद के इन 80 वर्षों में भारत का सब कुछ कई अवधियों, दौरों में बदला है। जब आज की परिवर्तनशील दुनिया को समझाने के लिए माक्र्सवाद को दोबारा, नए ढंग से पढऩा होगा तो प्रेमचंद का भारत और उसके बाशिंदे तो अब कुछ और होकर कहीं और जा रहे हैं। कुछ दिवास्वप्न देखने या परस्पर विलाप करने के अलावा हम ‘लेखकों-बुद्धिजीवियों’ के पास, जिन्होंने इंदिरा गांधी के युग से सक्रिय क्रांतिधर्मा राजनीति से लगातार पलायन किया, बचा क्या है? अपनी कुछ दुर्भाग्यपूर्ण अर्ध-प्रतिक्रियावादी कविताओं को छोड़कर निराला अब भी कथ्य और शिल्प-रूप में मुझ जैसों को अपनी ‘परंपरा’ में खींचते लगते हैं। विडंबना है कि प्रेमचंद की भाषा कवियों के लिए अभी तक भी अद्वितीय बनी हुई है।
रागात्मक स्वरूप वाली अप्रतिम सौन्दर्यबोध की ‘द्रौपदी के विषय में कृष्ण’ जैसी कविताएं आपके पास हैं। क्या इसे प्रेम-कविता कहा जा सकता है?
मैं कहना चाहूंगा कि मेरी ही नहीं बल्कि दूसरों की वैसी रचनाओं के लिए भी ‘राग कविता(एं)’ प्रत्यय प्रयुक्त होना चाहिए- हिंदी में ‘प्रेम’ एक बदरंग लेबिल बन चुका है। द्रौपदी और कृष्ण के बीच जो जटिल सम्बन्ध द्वापर में थे वह स्त्री-पुरुष के बीच आज कहीं-कहीं नजर आते हैं।
पत्रकारिता में सुर्खियों में कई सनसनीखेज क्लिशेज का इस्तेमाल सिर्फ पाठकों को चौंकाने के लिए हो रहा है।
हिंदी पत्रकारिता दो-एक अपवादों को छोड़ कर पहले भी पेशेवर और नैतिक रूप से मंझाोले दर्जे की थी, आज औसत से भी नीचे है। जब पूरे अखबार ही ‘विज्ञापकीय’ (‘एडवरटोरिअल’) बनने की फिरंगी थर्ड-पेज दिशा में दौड़ रहे हों- जबकि पश्चिम में इतनी निर्लज्जता अकल्पनीय है- तो ‘पत्रकारिता’ शब्द ही ‘टैग’और ‘ब्रांड’ बन चुका है। मैं नहीं समझाता कि प्रबंधन की प्रबुद्ध जन-प्रतिबद्धता के बगैर मौजूदा अखबारनवीसी की दशा-दिशा बदल पाएगी। मुझो दैनिकों की प्रिंट-लाइन पढ़ कर हंसना-रोना आता है।