ढलते सूरज का साथ नहीं, उगते सूरज को देखना चाहती हंू मैं। मैं हमेशा मैं रहना चाहती हूं, न कम न ज्यादा एक लौ की तरह, कभी न बुझाने, थकने, हारने वाली,
हमेशा किसी भी बुराई से लडऩे और जीतने वाली अटूट, असीम शक्ति की तरह, मुझो भरोसा है स्वयं पर, सृष्टि की सारी सुगंध को भर लेना चाहती हंू अपने भीतर, हरी नयी कोपलों की ताजगी,
सूरज की उष्णता, चांद की शीतलता, समुंदर की गहराई, हवाओं की ठंडक, काश मुझामें समा जाए। सृष्टि के आदि आरंभ को लेकर कोई तर्क नहीं, अपने अवचेतन को स्वच्छ, निश्चल और मधुर
बनाना चाहती हूं। वाचाल, चंचल, चपल होकर भी शांत रहकर संपूर्णता को पाकर जीवन का गीत गुनगुनाना चाहती हंू मैं सारे रिश्ते और बंधन दिल से महसूस कर उन्हें जीना चाहती हूं मैं।
इस भीड़ भरी दुनिया में बस खुद से खुद की पहचान कराना चाहती हूं मैं। -सुषमा अरोड़ा