आपने भी देखा होगा कैसे कृषि कानूनों की वापसी के ऐलान के बाद सोशल मीडिया से लेकर टीवी चैनल्स पर नेताओं की मांग दूसरे कानून के विरुद्ध तेज होते दिखाई दे रहे हैं। बसपा सांसद कुंवर दानिश अली ने कहा कि प्रधानमंत्री मोदी को CAA को निरस्त करने पर भी विचार करना चाहिए।
प्रमुख मुस्लिम संगठन जमीयत उलेमा-ए-हिंद के अध्यक्ष मौलाना अरशद मदनी ने भी अपनी मांग को तेज करते हुए कहा, ‘‘हम तीनों कृषि कानूनों को वापस लिए जाने की घोषणा का स्वागत करते हैं। किसानों को हम मुबारकबाद देते हैं। हमारे प्रधानमंत्री सही कहते हैं कि हमारे देश का ढांचा लोकतांत्रिक है। ऐसे में अब उन्हें उन कानूनों की ओर भी ध्यान देना चाहिए, जो मुसलमानों से जुड़े हैं। कृषि कानूनों की तरह सीएए को भी वापस लिया जाए।’’ इसके बाद तो क्या नेता क्या पत्रकार क्या संगठन सभी यही मांग दोहराते दिखे।
यही मांग NRC को लेकर भी देखने को मिली। वहीं, ट्विटर पर अनुच्छेद 370 हटाने की मांग भी तेज होती दिखाई दी। सभी अब अपनी मांगों को और तेज करने की अपील करने लगे।
ट्विटर पर जम्मू कश्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री महबूब मुफ्ती ने कहा, ‘कृषि कानूनों को निरस्त करने और माफी मांगने का निर्णय एक स्वागत योग्य कदम है, भले ही यह चुनावी मजबूरियों और चुनावों में हार के डर से लिया गया हो। विडंबना यह है कि बीजेपी जहां वोट के लिए देशभर के लोगों को खुश करने में जुटी है, वहीं कश्मीरियों को अपमानित करना उनके प्रमुख वोटबैंक को संतुष्ट करता है।’ इसके बाद उन्होंने लिखा, ‘जम्मू-कश्मीर को खंडित और शक्तिहीन करने के लिए भारतीय संविधान का अपमान केवल अपने मतदाताओं को खुश करने के लिए किया गया था। मुझे उम्मीद है कि वे यहां भी सही होंगे और अगस्त 2019 में जम्मू-कश्मीर में किए गए अवैध परिवर्तनों को पलट देंगे।’
जिस तरह से सोशल मीडिया पर सरकार द्वारा लागू किये गए कानून को वापस लेने की मांग की जा रही है उसे देखकर एक और आंदोलन की आहट सुनाई दे रही है। परंतु, इससे एक बड़ा सवाल उठता है कि क्या कानून को वापस लिया जाना ही एक तरीका है ? क्या विरोध के आगे झुकने के बाद देश में कोई बड़ा सुधार करने की रणनीति पर कितना प्रभाव पड़ेगा?
गौर करें तो हर मुद्दे पर किसी का समर्थन होता है तो कोई उसके खिलाफ होता है। कृषि कानून के मामले में भी यही देखा गया। कुछ किसान इसके खिलाफ थे, खासकर हरियाणा और पंजाब के, परंतु बिहार और कुछ अन्य राज्यों के किसान इसके समर्थन में थे। यहां तक कि कॉर्पोरेट जगत भी इसके पक्ष में दिखाई दिया।
जाहिर है कृषि कानून से कृषि सेक्टर में कई बड़े रिफॉर्म देखने को मिल सकते थे। कुछ खामियां थीं जिसपर सरकार ने किसानों से बातचीत करने के प्रयास किये थे, जो सफल नहीं रहे। कारण भी स्पष्ट था, कुछ किसान कृषि कानून को अपने हित के खिलाफ देख रहे थे। हालांकि, एक तथ्य ये भी है कि तीनों कानूनों के कारण कृषि सेक्टर में निजी क्षेत्र की हिस्सेदारी बढ़ती। किसानों के पास अपनी फसलों की बिक्री के लिए और भी विकल्प मिल सकते थे। इसके अलावा, इस कानून से बाजार और खुलता और उचित एवं पारदर्शी खरीद होने से किसानों की आय बढ़ने की भी संभावना जताई जा रही थीं। किसानों के लिए बाजार तक पहुंच और अपने उत्पादों की बिक्री आसान होती। इसके अलावा कृषि से जुड़े स्टार्टअप और कृषि सेक्टर की बड़ी कंपनियों को भी लाभ मिलता, परंतु अब सभी चीजें पहले जैसी होंगी। कॉर्पोरेट जगत की सभी योजनाओं पर अब पानी फिर चुका है। हालांकि, किसानों का एक तबका काफी खुश है।
बता दें कि अनुच्छेद-370 के तहत ही जम्मू-कश्मीर के नागरिकों के पास दोहरी नागरिकता होती थी। भारत सरकार ने 5 अगस्त 2019 को जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद -370 को हटा दिया था। इसके साथ ही लद्दाख को अलग करके जम्मू-कश्मीर को केंद्र शासित प्रदेश बना दिया था। इसके बाद जम्मू-कश्मीर और लद्दाख में कई बड़े रिफॉर्म देखने को मिले। शिक्षा हो या इंडस्ट्री या लोगों की आम दिनचर्या सभी पर प्रभाव देखने को मिला।
यदि सरकार विरोध के दबाव में अनुच्छेद-370 को फिर से बहाल करती है तो ये निर्णय कई बड़े सुधारों को कश्मीर में होने से रोक सकता है। जहां अनुच्छेद-370 के हटने जम्मू कश्मीर के कई युवा मुख्यधारा से जुड़ रहे हैं, तो कई कश्मीरी पंडित घर वापसी कर रहे हैं। कश्मीर में निवेश के द्वार खुले हैं। पाकिस्तान की कई बड़ी योजनाओं पर कश्मीर में पानी फिर रहा है। फिर भी पाकिस्तान कश्मीर के युवाओं को गुमराह करने का एक अवसर नहीं छोड़ रहा। हालांकि, इस कानून के हटने से अलगाववादियों को बड़ा झटका लगा है, परंतु लद्दाख जो कश्मीर के मुद्दों में दब कर रह जाता था वो आज विकास की दिशा में आगे बढ़ रहा है।
कुछ ऐसा ही CAA को लेकर भी देखने को मिला जिसे गृह मंत्री अमित शाह द्वारा 9 दिसंबर, 2019 को लोकसभा में पेश किया गया था। कुछ समर्थन में दिखे तो कुछ इस बात से चिंतित थे कि भारत केवल पीड़ित हिंदुओं, सिखों जैसे गैर मुस्लिमों के लिए ही अपने द्वार क्यों खोल रहा। हालांकि, सरकार के भी अपने तर्क हैं। NRC का मुद्दा भी अपने आप में काफी महत्वपूर्ण है। कुछ राज्य इसके समर्थन में दिखे तो कुछ खुलकर विरोध करते हुए नजर आए। इन घटनाओं को देखकर भविष्य में देश में बदलाव के क्रम में लिए जाने वाले निर्णयों पर भी प्रश्नचिन्ह लग गया है।
अब अगर सरकार इन मांगों के आगे झुकती है तो कश्मीर में बदलाव की रणनीति पर बड़ा प्रभाव पड़ सकता है। ये केंद्र शासित प्रदेश मुख्यधारा से फिर से यहां अलग हो सकता है और एक बार फिर से अलगाववादियों का प्रसार देखने को मिल सकता है।
अवैध घुसपैठियों के खिलाफ लिए जा रहे एक्शन पर भी इसका प्रभाव देखने को मिल सकता है। ऐसे में सरकार के लिए बदलाव की रणनीति के तहत किसी भी निर्णय को लेना कठिन हो जायेगा। देश विरोधी ताकतों को इससे बढ़ावा मिल सकता है जो आम जनता की आड़ में हिंसा को अंजाम देते हैं।
जब जब सरकार कोई बड़ा बदलाव करने के लिए कोई कानून लाती है, तो समर्थन के साथ विरोध भी देखने को मिलता है। कई बार कई बड़े विरोध परदर्शन तक देखने को मिले हैं जो हिंसा का रूप तक लेते हैं। कृषि कानून को लेकर भी कुछ ऐसा ही विरोध देखने को मिला जिसने सरकार को झुकने के लिए मजबूर कर दिया।