जब राकेश टिकैत ने जिंदगी में पहली बार चुनाव लड़ने की सोचा तो यही आए। बात समझ रहे हैं, ये वो सीट है जो जाट नेताओं को अपने लिए सेफ लगती है। आइए इसकी हिस्ट्री के पन्ने खोलते हैं…
चरण सिंह कांग्रेस से अलग हुए तो खतौली से मिला साथ 1969 में चौधरी चरण सिंह कांग्रेस से अलग हो गए और उन्होंने भारतीय क्रान्ति दल बनाया। 1969 में भारतीय क्रान्ति दल के वीरेंद्र सिंह यहां से जीते।
इसके बाद 1974 और 1977 में भी यहां से चरण सिंह के ही आशीर्वाद से जनता दल के लक्ष्मण सिंह ने चुनाव जीता। चरण सिंह और उसके बाद अजित सिंह ने जो भी पार्टी बनाई, खतौली से उनको साथ मिलता रहा।
चरण सिंह के निधन के बाद अजित सिंह ने पहले किसान कामगार पार्टी और फिर राष्ट्रीय लोकदल बनाई। 1996, 2002 और फिर 2012 में यहां से रालोद को सफलता मिली। 2022 में भी रालोद के राजपाल सैनी ने भाजपा कैंडिडेट को अच्छी फाइट दी थी।
2007 के बाद नए परिसीमन में टिकैत का गांव सिसौली और कुछ दूसरे गांव बुढ़ाना विधानसभा में शामिल कर दिए गए। ऐसे में जाटों के वोट खतौली सीट पर कम हो गए। इसी के चलते 2007 के बाद खतौली से कोई जाट प्रत्याशी जीत हासिल नहीं कर सका है।
राकेश टिकैत खतौली से ही लड़े थे चुनाव महेंद्र सिंह टिकैत ने भारतीय किसान यूनियन को हमेशा अराजनैतिक कहा और चुनाव से दूर रहे। उनके बेटे राकेश टिकैत ने चुनाव में उतरने का ऐलान किया। 2007 के विधानसभा चुनाव में राकेश टिकैत खुद खतौली से चुनाव लड़े। हालांकि वो चुनाव में चौथे नंबर पर रहे।
1991 में भाजपा को खतौली पर पहली जीत मिली थी। 1991 और 1993 में यहां से भाजपा के सुधीर बालियान ने जीत हासिल की। इसके बाद 2017 और 2022 के दो चुनाव भाजपा लगातार जीत चुकी है।
इस सीट के इतिहास को देखने पर पता चलता है कि यहां बसपा, सपा और कांग्रेस का बहुत प्रभाव कभी नहीं रहा है। कांग्रेस और बसपा एक-एक बार जीते हैं तो सपा को पहली जीत की तलाश है। रालोद और भाजपा ही इस सीट पर प्रभावी रहे हैं। ऐसे में जब एक बार फिर ये दोनों दल आमने-सामने होंगे तो निश्चित ही मुकाबला चिलचस्प होगा।
अब आज की कहानी
उपचुनाव में भी जयंत ने आरएलडी के सिंबल पर ही प्रत्याशी उतारने का ऐलान कर दिया है। सीट पर आठ महीने में फिर से दोनों दल आमने सामने होंगे।
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