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मुजफ्फरनगर

खतौली विधानसभा: कभी जाटों का रहा कब्जा, राकेश टिकैत भी यहीं से लड़े थे जिंदगी का पहला चुनाव

यूपी की खतौली विधानसभा सीट पर 5 दिसंबर को वोट डाले जाएंगे। इस सीट पर एक बार फिर आरएलडी और भाजपा के बीच मुकाबला हो सकता है। ये वही सीट है, जब राकेश टिकैट को चुनाव लड़ना तो इसे चुना था, जानते हैं क्यों?

मुजफ्फरनगरNov 08, 2022 / 10:14 pm

Rizwan Pundeer

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रालोद प्रमुख जयंत चौधरी (बांये) के साथ किसान यूनियन के नेता राकेश टिकैत

मुजफ्फरनगर जिले की खतौली विधानसभा सीट पर उपचुनाव में 5 दिसंबर को वोट डाले जाएंगे। इस सीट कहानी जानते हैं? ये वही सीट है, जब चौधरी चरण सिंह कांग्रेस छोड़ कर पार्टी तो उनकी पार्टी का उम्मीदवार यहां आसानी से जीत गया।

जब राकेश टिकैत ने जिंदगी में पहली बार चुनाव लड़ने की सोचा तो यही आए। बात समझ रहे हैं, ये वो सीट है जो जाट नेताओं को अपने लिए सेफ लगती है। आइए इसकी हिस्ट्री के पन्ने खोलते हैं…
मेरठ और मुजफ्फरनगर के बीच में बसा है खतौली

मुजफ्फरनगर और मेरठ के बीच में गंगनगर के किनारे बसा खतौली कस्बा आजादी के बाद जानसठ विधानसभा सीट का हिस्सा बना। 15 साल बाद 1967 में खतौली विधानसभा बनी। पहली बार हुए चुनाव में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सरदार सिंह विधायक बने।

चरण सिंह कांग्रेस से अलग हुए तो खतौली से मिला साथ

1969 में चौधरी चरण सिंह कांग्रेस से अलग हो गए और उन्होंने भारतीय क्रान्ति दल बनाया। 1969 में भारतीय क्रान्ति दल के वीरेंद्र सिंह यहां से जीते।

इसके बाद 1974 और 1977 में भी यहां से चरण सिंह के ही आशीर्वाद से जनता दल के लक्ष्मण सिंह ने चुनाव जीता। चरण सिंह और उसके बाद अजित सिंह ने जो भी पार्टी बनाई, खतौली से उनको साथ मिलता रहा।

चरण सिंह के निधन के बाद अजित सिंह ने पहले किसान कामगार पार्टी और फिर राष्ट्रीय लोकदल बनाई। 1996, 2002 और फिर 2012 में यहां से रालोद को सफलता मिली। 2022 में भी रालोद के राजपाल सैनी ने भाजपा कैंडिडेट को अच्छी फाइट दी थी।
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पूर्व केंद्रीय मंत्री चौधरी अजित सिंह IMAGE CREDIT:
सिसौली की वजह से भी रहा सीट का खास महत्व

2007 से पहले तक किसान राजधानी कहे जाने वाले महेंद्र सिंह टिकैत का गांव सिसौली खतौली विधानसभा का हिस्सा था। ऐसे में किसान राजनीतिक और वेस्ट यूपी की राजनीति का बड़ा केंद्र खतौली रहती थी। इसी विधानसभा सीट से वेस्ट यूपी के किसानों और जाटों की नब्ज का अंदाजा भी चुनावी रणनीतिकार लगाते थे।

2007 के बाद नए परिसीमन में टिकैत का गांव सिसौली और कुछ दूसरे गांव बुढ़ाना विधानसभा में शामिल कर दिए गए। ऐसे में जाटों के वोट खतौली सीट पर कम हो गए। इसी के चलते 2007 के बाद खतौली से कोई जाट प्रत्याशी जीत हासिल नहीं कर सका है।

राकेश टिकैत खतौली से ही लड़े थे चुनाव

महेंद्र सिंह टिकैत ने भारतीय किसान यूनियन को हमेशा अराजनैतिक कहा और चुनाव से दूर रहे। उनके बेटे राकेश टिकैत ने चुनाव में उतरने का ऐलान किया। 2007 के विधानसभा चुनाव में राकेश टिकैत खुद खतौली से चुनाव लड़े। हालांकि वो चुनाव में चौथे नंबर पर रहे।
क्यों दिलचस्प रहेगा उपचुनाव

खतौली विधानसभा पर 2007 तक जाटों और चरण सिंह परिवार दबदबा दिखता है लेकिन हकीकत ये है कि भाजपा भी इस सीट पर राम मंदिर आंदोलन के बाद से मजबूत रही है।

1991 में भाजपा को खतौली पर पहली जीत मिली थी। 1991 और 1993 में यहां से भाजपा के सुधीर बालियान ने जीत हासिल की। इसके बाद 2017 और 2022 के दो चुनाव भाजपा लगातार जीत चुकी है।

इस सीट के इतिहास को देखने पर पता चलता है कि यहां बसपा, सपा और कांग्रेस का बहुत प्रभाव कभी नहीं रहा है। कांग्रेस और बसपा एक-एक बार जीते हैं तो सपा को पहली जीत की तलाश है। रालोद और भाजपा ही इस सीट पर प्रभावी रहे हैं। ऐसे में जब एक बार फिर ये दोनों दल आमने-सामने होंगे तो निश्चित ही मुकाबला चिलचस्प होगा।

अब आज की कहानी
खतौली में इलेक्शन के ऐलान के साथ ही आरएलडी अध्यक्ष जयंत चौधरी ने कह दिया है कि उनकी पार्टी सपा के साथ गठबंधन में यहां से लड़ेगी। इस साल मार्च-अप्रैल में हुए विधानसभा चुनाव में आरएलडी ने सपा के साथ गठबंधन में चुनाव लड़ा था। खतौली सीट तब आरएलडी को मिली थी। हालांकि आरएलडी के राजपाल सैनी भाजपा के विक्रम सैनी से हार गए थे।

उपचुनाव में भी जयंत ने आरएलडी के सिंबल पर ही प्रत्याशी उतारने का ऐलान कर दिया है। सीट पर आठ महीने में फिर से दोनों दल आमने सामने होंगे।


आपको क्या लगता है कौन इस बार कौन जीतेगा। बताइए हमें rizwan.pundeer@in.patrika.com पर।

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