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महाराष्ट्र सरकार ने बॉम्बे हाई कोर्ट में दायर की याचिका

खासकर अपराध से जुड़े मामलों में पूरे महाराष्ट्र में मीडिया का काम कठिन होने वाला है

मुंबईJun 11, 2015 / 08:35 pm

भूप सिंह

bombay high court

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मुंबई। खासकर अपराध से जुड़े मामलों में पूरे महाराष्ट्र में मीडिया का काम कठिन होने वाला है। महाराष्ट्र सरकार ने बॉम्बे हाई कोर्ट में एक हलफनामा दायर कर बताया है कि आरोपी और पीडित की निजता बनाए रखने के लिए पुलिस को दिशा-निर्देश जारी किया है, जिसमें आरोपी का नाम, उसकी तस्तीर और उससे जुड़ी कोई भी जानकारी मीडिया को देने के लिए मना किया गया है। यह हलफनामा बॉम्बे हाई कोर्ट में दायर एक जनहित याचिका के जवाब में दिया गया है। जनहित याचिका दायर करने वाले वकील राहुल ठाकुर के मुताबिक, किसी पर भी मामला दर्ज होते ही पुलिस उसकी पूरी जानकारी, तस्वीर मीडिया को दे देती है। 

नतीजा यह होता है कि दोष साबित होने के पहले ही वह शख्स अपराधी मान लिया जाता है, जो अन्याय है। राज्य सरकार के हलफनामें में 15 दिशा-निर्देश दिए गए हैं, जिसमें आरोपी के साथ पीडित और उसके परिवार की जानकारी देने पर भी रोक लगाई गई है। इसके साथ ही आरोपी का इकबालिया बयान, उसके पास से जब्त हथियार और दूसरे सामानों की तस्वीर भी मीडिया को नहीं देने के लिए कहा गया है और तो और हत्या के मामले में मृतक की तस्वीर भी मीडिया को देने पर रोक लगाई गई है। इसके मुताबिक, ऎसा तब तक करना है, जब तक उस मामले में आरोप पत्र दायर न हो जाए और सभी आरोपी पकड़ न लिए जाएं।

मीडिया का पक्ष भी जरूरी
ऎसे में सवाल उठना लाजिमी ही है कि कहीं यह मीडिया ट्रायल के नाम पर मीडिया पर पाबंदी की कोशिश तो नहीं? वरिष्ठ पत्रकार ओम प्रकाश तिवारी का कहना है कि इस तरह की पाबंदी पारदर्शिता खत्म करती है। सन् 1993 में हुए मुंबई सीरियल बम धमाकों का हवाला देते हुए वे पूछते हैं कि उस मामले में तो अब भी कई आरोपी फरार हैं, तो क्या हम उसकी रिपोटिंüग ही न करें? तिवारी के मुताबिक, इस तरह की पाबंदी के पहले सरकार मीडिया का पक्ष भी जान लेती तो अच्छा होता।

मीडिया का गला घोंटने की कोशिश
आरटीआई कार्यकर्ता अनिल गलगली ने तो इसे मीडिया का गला घोंटने की कोशिश करार दिया है। उनका कहना है कि आरोपियों को बेनकाब करने से उनमें भय पैदा होता है और अपराध पर रोक लगती है व मीडिया तभी खबर चलाती है, जब पुलिस मामला दर्ज करती है। गलगली का सवाल है कि पुलिस गलत आदमी को गिरफतार ही क्यों करती है? जबकि पूर्व आईपीएस सुधाकर सुराडकर का कहना है कि जब हम हक की बात करते हैं तो फर्ज ीाी समझना होगा। राष्ट्रीय सुरक्षा से जड़े मामलों में इस तरह की पाबंदी जरूरी है, लेकिन सभी मामलों में नहीं।

मीडिया जैसा पहरेदार भी जरूरी
खास बात तो यह है कि मीडिया ही नहीं कई पुलिस वाले भी इस परिपत्रक को पूरी तरह ठीक नहीं मानते। उनका कहना है कि हत्या के कई मामलों में मृतक की शिनाख्त ही मीडिया की वजह से ही हो पाती है। बिना शिनाख्त के हत्या की गुत्थी सुलझाई ही नहीं जा सकती। सवाल इस बात पर भी उठ रहा है कि अगर रोक लगानी है तो दोष साबित होने तक ही क्यों नहीं? सिर्फ आरोप पत्र दायर होने तक ही क्यों? उसके बाद भी तो कई आरोपी छूट जाते हैं। तो क्या तब उसके साथ अन्याय नहीं होगा? बहरहाल, रोक मीडिया को कुछ खास जानकारी देने पर लगी है। मीडिया में छापने पर नहीं, इसलिए इसे मीडिया पर पाबंदी तो नहीं कहेंगे, लकिन यह मीडिया को काफी हद तक सूचना देने से रोकने की कोशिश जरूर है। यह भी सच है कि आरोपी और पीडित के अधिकार का ख्याल रखना चाहिए, लेकिन साथ में यह देखना भी जरूरी है कि जांच में पारदर्शिता बनी रहे, वर्ना रसूखदार लग पुलिस से मिलकर मामले को रफादफा करने से बाज नहीं आएंगे। आखिर कई ऎसे मामले हैं, जो मीडिया की वजह से ही अंजाम तक पहुंच पाए हैं। इसलिए मीडिया जैसा पहरेदार भी जरूरी है।

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