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मूवी रिव्यू

AK vs Ak Movie Review : फिल्म में फिल्म का अजीबो-गरीब तमाशा, इस रात की कोई सुबह नहीं

० फिर अति प्रयोगवाद का शिकार हुए निर्देशक विक्रमादित्य मोटवाने ० अनिल कपूर और अनुराग कश्यप में भद्दी गालियों का मुकाबला० भागदौड़ के लम्बे और उबाऊ सीन, तकनीकी मोर्चे पर भी फिल्म कमजोर

Dec 26, 2020 / 09:24 pm

पवन राणा

AK vs Ak Movie Review : फिल्म में फिल्म का अजीबो-गरीब तमाशा, इस रात की कोई सुबह नहीं

AK vs Ak Movie Review : फिल्म में फिल्म का अजीबो-गरीब तमाशा, इस रात की कोई सुबह नहीं

-दिनेश ठाकुर

मीर तकी मीर ने फरमाया है- ‘शर्त सलीका है हर इक अम्र (काम) में/ ऐब भी करने को हुनर चाहिए।’ इसी बात को निदा फाजली ने अलग अंदाज में कहा है- ‘बहुत मुश्किल है बंजारा मिजाजी/ सलीका चाहिए आवारगी का।’ दुनिया में सारी महिमा सलीके की है। सलीके से कुछ भी किया जाए, भीड़ में अलग दिखाई देता है। वसीम बरेलवी का शेर है- ‘कौन-सी बात कहां कैसे कही जाती है/ ये सलीका हो तो हर बात सुनी जाती है।’ बात कहने के सलीके के मोर्चे पर विक्रमादित्य मोटवाने की ‘एके वर्सेज एके’ बुरी तरह मात खाती है। प्रयोगवादी फिल्म बनाना अच्छी बात है, लेकिन ‘एके वर्सेज एके’ में मोटवाने इस कदर अति प्रयोगवादी हो गए कि पर्दे पर चल रही घटनाएं झुंझलाहट पैदा करने लगती हैं। तकनीक के लिहाज से भी यह निहायत ऊबड़-खाबड़ फिल्म है।

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फ़िल्मकार और स्टार का टकराव
हॉलीवुड की कॉमेडी फिल्म ‘बॉफिंगर’ (1999) में एक तिकड़मी फिल्मकार (स्टीव मार्टिन) एक बड़े स्टार (एडी मर्फी) को लेकर फिल्म बनाने के लिए अजीबो-गरीब हथकंडे अपनाता है। ‘एके वर्सेज एके’ में भी यही किस्सा है। यहां फिल्मकार अनुराग कश्यप अपने ही किरदार में हैं, तो अनिल कपूर भी ‘मुन्ना’ या ‘लखन’ के बजाय अनिल कपूर के तौर पर मौजूद हैं। अनुराग काफी समय से स्टार अनिल कपूर को लेकर फिल्म बनाने का सपना देख रहे हैं, लेकिन अनिल उन्हें ज्यादा भाव नहीं देते। अनुराग यथार्थवादी फिल्म बनाने के जुनून में अनिल की बेटी सोनम कपूर का अपहरण कर लेते हैं। इसके बाद एक रात को अनिल और अनुराग के बीच चूहे-बिल्ली का जो खेल चलता है, कैमरा उसे शूट करता रहता है। समझ से परे है कि परेशान हाल स्टार की भागदौड़ दिखाकर अनुराग कैसी फिल्म बनाना चाहते हैं।

अंधेरे के सीन धुंधले
फिल्म में बनती फिल्म दिखाने वाली ‘एके वर्सेज एके’ का किस्सा चूंकि एक ही रात का है, इसकी तमाम शूटिंग रात को की गई है। कई जगह अंधेरे के सीन इतने धुंधले हैं कि पर्दे पर चल क्या रहा है, पल्ले नहीं पड़ता। भागदौड़ के सीन काफी लम्बे और उबाऊ हैं। इन्हें संपादन के दौरान समेटा जा सकता था। लेकिन लगता है कि संपादन करने वाले को भी यह ऊबाऊ सीन देखते-देखते नींद आ गई होगी।

फुसफुसी कहानी, बिखरी हुई पटकथा
फिल्म में गालियों का इस्तेमाल धड़ल्ले से हुआ है। अनुराग कश्यप तो इस काम में पहले से माहिर हैं, अनिल कपूर ने भी जगह-जगह इतनी भद्दी गालियां बकी हैं कि ‘एके वर्सेज एके’ के बदले फिल्म का नाम ‘गाली वर्सेज गाली’ हो सकता था। अवव्ल तो कहानी ही फुसफुसी है, रही-सही कसर बिखरी हुई पटकथा ने पूरी कर दी। फिल्म को डार्क कॉमेडी बताया जा रहा है, लेकिन कॉमेडी के बजाय यह डार्क माहौल में घूमती रहती है।

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या इलाही ये माजरा क्या है
विक्रमादित्य मोटवाने ने ओ. हेनरी की कहानी ‘द लास्ट लीफ’ पर 2013 में ‘लुटेरा’ (सोनाक्षी सिन्हा, रणवीर सिंह) बनाई थी। वह भी कमजोर फिल्म थी, लेकिन उसके कुछ सीन देखकर लगा था कि आगे मोटवाने अच्छी फिल्म बना सकते हैं। ‘एके वर्सेज एके’ के बाद सारी उम्मीदें चूर-चूर हो गई हैं। सिनेमा में असली कमाल यह होता है कि गहरी बातें भी आसानी से बयान कर दी जाएं। मोटवाने की फिल्मों में मामूली बात भी चक्कर पर चक्कर काट कर पेश की जाती है और वह भी इस तरह कि देखने वाले ‘या इलाही ये माजरा क्या है’ पर सिर धुनते रहें।

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