इस अध्यादेश को लेकर कहीं समर्थन तो कहीं विरोध है, क्योंकि रेप की सजा फांसी होने को लेकर कई सवाल भी खड़े हो रहे हैं। वैसे आपको बता दें कि 16 दिसंबर 2012 को हुए निर्भया गैंगरेप कांड के बाद से ही कड़े कानून की मांग उठी थी और उस समय ऐसे जघन्य अपराधों को लेकर सरकार ने पॉक्सो एक्ट लागू किया था और इसमें कड़ी सजा का प्रावधान भी किया था। बता दें कि ये कानून 2013 में जस्टिस जेएस वर्मा के नेतृत्व में बनी कमिटी की सिफारिशों के आधार पर बनाया गया था।
निर्भया गैंगरेप के समय भी रेप की सजा फांसी होने पर कई जगहों से इसके विरोध में आवाज उठी थीं। खुद निर्भया कानून बनाने वाले जस्टिस जेएस वर्मा ने रेप के बदले मौत की सजा दिए जाने का विरोध किया था। उन्होंने कहा था कि अगर ऐसा होता है तो ये देश को पीछे ले जाने वाला होगा। यही नहीं जस्टिस वर्मा ने मौत की सजा को लेकर कहा था कि इसका बहुत असर भी देखने को नहीं मिलता है।
एक अखबार की खबर के मुताबिक, उस वक्त जस्टिस जेएस वर्मा के नेतृत्व वाले पैनल ने अंतरराष्ट्रीय कानूनों और अमरीकी अदालतों के कुछ फैसलों का उदाहरण देते हुए कहा था कि मौत की सजा शुरू करना पीछे ले जाने वाला कदम होगा क्योंकि यह जघन्यतम अपराधों के लिए ही तय की गई है।
इस पैनल में वर्मा के अलावा हाई कोर्ट के पूर्व जज लीला सेठ, पूर्व सॉलिसिटर जनरल गोपाल सुब्रमण्यन भी शामिल थे। वर्मा कमिटी ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि इस बात के पुख्ता सबूत हैं कि दुनिया भर में मौत की सजा से गंभीर अपराधों में कमी आना सिर्फ एक मिथक है। तमाम महिला संगठनों और स्कॉलर्स के विचारों को ध्यान में रखते हुए वर्मा कमिटी ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि वह जघन्यतम अपराधों में मौत की सजा के विरोध में नहीं हैं।