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मथुरा

बृज की होली नहीं देखी तो कुछ भी नहीं देखा, यहां तस्वीरों के साथ जानिए ब्रज की होली की खासियत

मथुरा के मंदिरों में होली एक माह पूर्व ही शुरू हो जाती, जब कहीं होली की चर्चा भी नहीं होती है।

मथुराFeb 21, 2019 / 12:06 pm

suchita mishra

Holi

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मथुरा। आज के आधुनिक परिवेश में भी ब्रज की होली ने अपने वास्तविक स्वरूप को बनाये रखा है। होली माधुर्य का पर्व है। प्रेम रस रंग और उमंग का प्रतीक पर्व है। होली का वास्तविक आनन्द केवल ब्रज में ही मिल सकता है। इस आनन्द की अनुभूति के लिये सारे देश के लोग यहां बरबस ही खिंचे चले आते हैं। यही नहीं यहां की होली विदेशी पर्यटकों को भी यहां आने और इस आनन्द में डूब जाने को मजबूर कर देती हैं। ब्रज में होली पूरे एक महीने से अधिक दिनों तक खूब मस्ती के साथ मनाई जाती है। होली का वास्तविक आनन्द यहां के देवालयों में मिलता है। मंदिरों में होली एक माह पूर्व ही शुरू हो जाती, जब कहीं भी होली की चर्चा भी नहीं होती है। होली की शुरुआत मंदिरों में समाज गायन से होती है। बसन्त पंचमी के दिन से मंदिरों में ठाकुर जी को इत्र और रंग लगा कर होली शुरू की जाती है। वृन्दावन में प्रसिद्ध बांके बिहारी मंदिर तथा मथुरा में द्वारकाधीश मंदिर में होली की शुरुआत समाजगायन से की जाती है। पंडा समाज के लोग बड़े-बड़े नगाड़ों और ढोल मंजीरे की धुन पर नाचते गाते हैं।
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मंदिरों से शुरू होती है होली
हजारों हजारों वर्षों से ब्रज की धरती पर होली खेली जाती है। इतिहास बदल गये। हमारी संस्कृति और परम्पराओं में बदलाव आया। आधुनिकता ने हमें चारों ओर से घेर लिया है किन्तु ब्रज के कण-कण में राधा कृष्ण का प्रेम और नटखट कृष्ण कन्हैया की और श्री राधा रानी की प्रेम भरी होली आज भी जनमानस के मनमस्तिक पर अमिट छाप की तरह हमेशा के लिये बनी हुई है। कान्हा की मधुर बांसुरी की धुन और राधा रानी के नूपुरों की झनकार और उनके नृत्य आज भी हमें उनके हमारे बीच ही उपस्थिति का अहसास कराते रहते हैं। जब होली की कहीं भी चर्चा तक नहीं होती उस समय ब्रज में होली शुरू हो जाती है। यहां होली का पर्व वंसत पंचमी से शुरू हो जाता है। इसी दिन श्यामा श्याम को गुलाल लगा कर श्रृंगार करने की परम्परा निभाई जाती है। इस समय जब भक्तों पर गुलाल पड़ता है तो वह इसे भगवान का प्रसाद मानकर अपने आपको धन्य मानते हैं। ब्रज में चारों ओर होली की अनूठी परम्पराओं के दर्शन होते हैं। कहीं रगं गुलाल की होली होती है तो कहीं अंगारों की, कहीं फूलों की तो कहीं लाठियों और कोड़ों की होली होती है।
बरसाने और नन्दगांव में लाठियों की होली
यहां ब्रज की अनूठी होली होती है। फाल्गुन शुक्ला नवमी को बरसाना में लठामार होली खेली जाती है। कहने को बरसाना छोटा सा गांव है, किन्तु श्री राधा रानी जी की बाललीलाओं का स्थान होने के कारण यह देश विदेश में विख्यात है। यहां होली खेलने के लिये कन्हैया के गांव नन्दगांव से हुरिहारे बरसाना आते हैं। रंग-बिरंगी पगड़ी पहने हाथों में ढाल लिये ये सब पीली पोखर में पहुंचते हैं। यहां भांग ठन्डाई छान कर सब आपस में हास परिहास करते हुए गीत गाते हुए बरसाने की ऊंची पहाड़ियों की तंग गलियों में होते हुये ऊपर बने हुए मंदिर में पहुंचते हैं। यहां श्रीजी के प्राचीन मंदिर में बरसाना और नन्दगांव के गुसाईयों में हास परिहास के बीच गीत संगीत का कार्यक्रम शुरू होता है। इसमें आपस में गालियों का प्रयोग करते हुए प्रेम और प्रीति के साथ हंसी ठिठोली भी होती है।
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आते हैं लाखों श्रद्धालु
गीत संगीत और नृत्य कार्यक्रम के हाद नन्दगांव के हुरिहारे अपने अपने हाथों में ढाल लिये संकरी गली जिसका नाम रंगीली गली के नाम से जाना जाता है, वहां एकत्रित हो जाते हैं। यहीं पर होती है विश्व प्रसिद्ध लठामार होली। इन संकरी गलियों में मोटी मोटी लाठियां लिये गोस्वामी परिवार की महिलायें गोपियों के रूप में अपने मुंह पर घूंघट काढ़े नन्दगांव से आये हुरियारों की प्रतीक्षा में होती हैं। हुरियारे जैसे ही वह यहां से गुजरते हैं, उछल-उछल कर उन पर लाठियां बरसाती रहती हैं। नन्दगांव के हुरियारे जमीन पर बैठ कर उनकी लाठियों के प्रहार को झेलते रहते हैं। इस अनोखी होली का आनन्द लाखों श्रद्धालु वहां उपस्थित रह कर उठाते हैं। लाड़ली लाल की जय-जयकार करते हैं।
समाज गायन के बाद होली
दूसरे दिन इसी तरह का माहौल नन्दगांव में होता है। यहां भी नन्दराय जी का ऊंची पहाड़ी पर मंदिर है। बरसाने के हुरिहारे यहां आते हैं और नन्दगांव के गुसाईयों के साथ समाज गायन का कार्यक्रम होता है। इसके बाद नन्दगांव के एक चौक में सभी एकत्रित होते हैं, जिसमें नन्दगांव की हुरिहारिनें बरसाने के हुरिहारों के साथ लठामार होली खेलती हैं।
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सतरंगी होली
बरसाने नन्दगांव की होली की शुरूआत के साथ ही ब्रज मंडल में चारों ओर सतरंगी रूप निखर उठता है। चारों तरफ अलग अलग ढंग से होली खेलने की परम्परा शुरू हो जाती है। नन्दगांव की होली के अगले दिन फाल्गुन शुक्ल एकादशी को रंगभरनी एकादशी पर्व पर मथुरा, वृन्दावन, गोवर्धन आदि के मंदिरों में रंग और गुलाल के ऐसे बादल उड़ते हैं जिससे बच कर किसी का भी निकलना मुश्किल होता है। मंदिरों में होने वाली सतरंगी होली का आनन्द भक्त और भगवान के बीच में खेला जाने वाला होली का वास्तविक आनन्द की अनुभूति कराता है।
फालैन गांव में अंगारों के बीच से निकलता है पंडा
फाल्गुन शुक्ला पूर्णिमा को ब्रज में होली पूजन और होलिका दहन का दिन होता है। इस दिन तिथि के अनुसार ही महिलाएं होलिका का पूजन करती हैं। उसी के तहत ही रात्रि में शहर व गांव के हर गली मोहल्ले में होलिका दहन का कार्यक्रम का आयोजन किया जाता है। इस मौके पर फालैन और जटवारी में गांव के बीचों-बीच बड़े से मैदान में हिरण्यकश्यप और होलिका के प्रतीक स्वरूप के दर्शन देखने को मिलते हैं, जिसमें दोनों गावों में एक एक पन्डा कई दिनों से पूजा अर्चना करके आपने आप का शुद्ध मन से विशाल होली की लपटों से निकलने के लिये तैयार करता है। इस दिन पन्डा विशाल होली की लपटों के बीच से होकर छलांग मार कर बाहर आता है। यह रोमांचकारी दृश्य देश-विदेश के लाखों लोगों के बीच सम्पन्न होता है। प्रह्लाद के विशाल अग्नि कुंड से बाहर आने पर सभी भक्त प्रहलाद की जय जयकार करने लगते हैं।
ठंडाई और भांग
होलिका दहन के अगले दिन धुलैंड़ी के दिन समूचे ब्रज में सभी नर नारी मदमस्त होकर होली खेलते हैं। एक दूसरे को रंग लगाते हैं। जगह-जगह गीत-संगीत का आयोजन किया जाता है। लोग ठन्डाई और भांग का सेवन करके माहौल को और उमंग से भर देते हैं। नाचते हैं। गाते हैं। झूमते हैं। आपस में रंग लगाते हैं। खुशियां मनाते हैं। मिठाई खाते हैं और खिलाते हैं। आपस में बधाइयों का आदान प्रदान भी करते हैं। गले मिल कर आपसी प्रेम को और प्रगाढ़ करते हैं।
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घाटों पर मस्ती
मथुरा में यमुनातट पर विश्राम घाट, स्वामी घाट, बंगाली घाट आदि क्षेत्रों में होली की छटा कुछ अलग ही देखने को मिलती है। जगह-जगह घाटों की बुर्जियों में भांग ठन्डाई बड़ी-बड़ी सिलों पर पीसते हैं। इसके शौकीन मथुरा के चतुर्वेदी समाज के लोग बादाम, पिस्ता, काजू, मुनक्का, खरबूजे की मिंगी, सौंफ, कालीमिर्च, गुलकंद आदि को पीस कर एक गोले का रूप दिया जाता है। इसके बाद मनों दूध में इस मिश्रण को मिला कर सभी देवताओं का आवाहन करके फिर वहां उपस्थित लोग प्रसाद के रूप में इसका सेवन करते हैं। भांग की तरंग और ठन्डाई की उमंग के साथ सभी मस्ती में डूब जाते हैं फिर शुरू होती है होली की तान।
चरकुला नृत्य
चैत्र कृष्ण पक्ष की द्वितीया से नवमी तक ब्रज के हुरंगे और फूलडोल के आयोजन होते हैं जिसमें जगह जगह होली के रसिया और गीत संगीत के आयोजन और होली मिलन समारोह आयोजित किये जाते हैं। मुखराई, ऊमरी, रामपुर, अहमल कलां, बछगांव, सौंख आदि आठ गांवों में चरकुला नृत्य का अयोजन होता है। यह ब्रज का परम्परागत लोकनृत्य है जिसमें चांदनी रात में सैकड़ों दीपों से जगमगाता 40 से 60 किलो वजन का चरकुला सिर पर रखकर एक नृत्यांगना होली के रसिया गीतों के लय ताल पर थिरकती है। उपस्थित गावों के लोग रात भर इसका आनन्द लेते हैं। आधुनिकता से परे आज भी विशाल बम्ब (नगाड़े) की ताल और अलगोजा, थाली, करताल, और मंजीरे की मधुर स्वर लहरियों के बीच इस नृत्य की समाप्ति पर नृत्यांगना को जुग जुग जीने की का आशीर्वाद भी गायन के साथ ही दिया जाता है। ‘‘जुग जुग जीओ मेरी नाचन हारी, नाचन हारी के दुई दुई हुइयें’’।
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दाऊजी का प्रसिद्ध हुरंगा
मथुरा से लगभग 22 किलोमीटर दूर बलराम जी का प्रसिद्ध मंदिर स्थित है जहां दाऊजी का हुरंगा मंदिर प्रांगण में ही खेला जाता है। यहां महिलायें कपड़े फाड़ देती हैं और उनके कोडे बनाकर पुरुषों के नंगे शरीर पर मारती हैं। मंदिर के विशाल प्रांगण में निर्मित हौजों में टेसू के फूलों को भिगो कर रंग बनाया जाता है। हुरिहारे बाल्टियों में भर भर कर हुरिहारिनों पर डालते रहते हैं। मंदिर के छज्जों से अलग-अलग रंगों का गुलाल उड़ता रहता है। अबीर और गुलाल का इन्द्र धनुषी छटा का आभास कराता यह हुरंगा सभी के मन को उमंगों से भर देता है।
हुरंगा
इसी दिन कोसीकलां के निकट जाव और बठैन गांव में भी हुरंगा होता है, जिसमें बलराम के प्रतीक के रूप में हुरियारों को राधारानी के प्रतीक रूप में महिलाओं से बड़ी मर्यादा के साथ होली खेलनी होती है। हुरंगा के शुरू होने से पहले शोभायात्रा के रूप में सिरदारी निकलती है इनकी यह शोभायात्रा राजा, महाराजा, जमीदारों की तरह बठैन के वयोवृद्ध जाब गांव में आते हैं उनका सम्मान किया जाता है। एक विशेष मिठाई खिलाई जाती है, फिर सभी गांव के लोग एक मैदान में एकत्रित होते हैं, जहां हुरियारे हाथ में हाथ डाले एक घेरा बनाकर बीच में बलराम के प्रतीक को लेकर चलते हैं। गांव की हुरिहारिनें लाठियों से बठैन से आये हुरियारों को मारती हैं। इस वार को हुरियारे लाठियों से ही रोकते रहते हैं। घेरा के बीच में बलराम एक ध्वज को लेकर घूमता रहता है।
राधा-कृष्ण के प्रेम का संदेश
बसंत पंचमी से चैत्र कृष्ण नवमी तक चलने वाला 50 दिनों का गीत, संगीत, नृत्य, भक्ति और भाव रस, रंग, उमंग का यह त्योहार ब्रजवासियों को मन तक भिगो कर तृप्त कर देता है। सभी की कामना होती है कि सभी चिरंजीवी हों और ब्रज में प्रति वर्ष होली खेलकर आनन्द की अनुभूति के साथ साथ भगवान कृष्ण और राधा के प्रेम का सन्देश जन-जन तक पहुंचाते रहें।

प्रस्तुतिः सुनील शर्मा, मथुरा

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