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मायावती उनका हमेशा अहसान मानती थीं। यहां तक कि जब भाजपा संग गठजोड़ में ढाई-ढाई साल के सीएम की बात आई तो मायावती चाहती थीं कि भाजपा को जब मौका मिले तो ब्रह्मदत्त द्विवेदी ही मुख्यमंत्री बनें। हालांकि बाजी कल्याण सिंह के हाथ लगी।स्कूल लाइफ से ही आरएसएस के कार्यकर्ता रहे ब्रह्मदत्त द्विवेदी ने 1977 में पहला विधानसभा चुनाव जीता था। फिर वह तीन बार विधायक बने और 1991-92 के दौरान कल्याण सिंह सरकार में मंत्री भी बनाए गए। फिर भाजपा की सरकार बाबरी कांड में बर्खास्त हो गई। इसके बाद 1993 में हुए चुनाव में ‘मिले मुलायम कांशीराम’ के नारे के साथ सपा और बसपा ने चुनाव लड़ा और गठबंधन सरकार बनाई। दो साल सरकार चलाने के बाद मायावती ने 1995 में समर्थन वापस ले लिया था। इससे सपा के लोग भड़क गए। मायावती लखनऊ के गेस्ट हाउस में बसपा नेताओं के साथ मीटिंग कर रही थीं।
तभी गेस्ट हाउस के बाहर सपा के नेताओं और कार्यकर्ताओं की भारी भीड़ जुट गई। मायावती समेत बसपा के नेताओं पर हमले की तैयारी थी। सैकड़ों की संख्या में लोग जुटे थे और बसपा नेता घिर चुके थे। इस बीच बगल की इमारत में ही ठहरे ब्रह्मदत्त द्विवेदी को भनक लगी तो वह मौके पर पहुंचे। उन्होंने सीधे अटल बिहारी वाजपेयी से बात की।
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क्यों मायावती के मन में ब्रह्मदत्त के लिए पैदा हुआ सम्मानउस दौर के नेता बताते हैं कि इस घटना के बाद मायावती के मन में ब्रह्मदत्त द्विवेदी के प्रति गहरा सम्मान था और वह उनका अहसान मानती थीं। यहां तक कि जब भाजपा से गठबंधन सरकार की बारी आई और आधे-आधे टर्म की बात चली तो मायावती चाहती थीं कि भाजपा के मुख्यमंत्री के तौर पर ब्रह्मदत्त द्विवेदी को ही चुना जाए।