इतिहासकारों के मुताबिक नवाब आसफ़ुद्दौला की पैदाइश 23 सितंबर 1748 को हुई थी। नवाबी खानदान के इस चौथे बारिस की मौत भी 21 सितंबर 1797 को हुई। इसी तरह नवाब खानदान के दसवें और आखिऱी नवाब वाजिद अली शाह की मौत भी सितंबर, 1887 में हुई। इस तरह से देखा जाए तो नवाब खानदान का इतिहास कुल 150 सालों का था। जिसकी शुरुआत और अंत सिंतबर माह में ही होती है। इन डेढ़ सौ सालों में नवाबी काल फ़ैज़ाबाद से शुरू होकर लखनऊ में ख़त्म हुआ। बताया जाता है इममाबाड़े के निर्माण में आसफ़ुद्दौला ने 20 हजार से ज्यादा लोगों को काम दिया था। तब इसको बनवाने के लिए मजदूरी के रूप पांच लाख से 10 लाख रुपये खर्च हुए थे। इमामबाड़े भूलभुलैया के इस निर्माण के दौरान ही यह कहावत चल पड़ी- जिसे न दे मौला, उसे दे आसफ़ुद्दौला।
शाहखर्ची के लिए जाने जाते थे आसफुद़्दौला
बताया जाता है कि आसफद्दौला बहुत खर्चीले थे। इतिहास में जिक्र है कि उन्होंने कई बार अपनी रियासतों को गिरवी रखकर कर्ज लिया था। आसफ़ुद्दौला ने अपने बेटे का जब अपना वारिस घोषित किया था तब भी खूब पैसा खर्च किया था। उसकी शादी में भी खूब पैसा खर्च किया गया। तब शादी की इस शान ओ शौक़त देखकर दिल्ली के मुग़ल भी शरमा गए थे। बारात में लगभग 1200 सजे-धजे हाथी थे जिनमें से लगभग 100 हाथियों पर चांदी के हौदे थे। उस जमाने में नवाब ने 36 लाख रुपये ख़र्च किये थे। यह अवध की सबसे महंगी शादियों में से थी।
इतिहासकारों के मुताबिक आसफ़ुद्दौला के कई रानियां थीं लेकिन उसकी दिलचस्पी लडक़ों में ज्याद थी। कहते हैं शुजाउद्दौला ने तवायफ़ संस्कृति की शुरुआत की थी। उनके बेटे आसफ़ुद्दौला बाप से एक कदम आगे निकले।उ उन्होंने तवायफों पर बहुत धन लुटाया। नवाब खाने के भी बेहद शौक़ीन थे। मशहूर शायर मीर तक़ी मीर आसफुदौला के अनुरोध पर लखनऊ आये थे। यह कौमी एकता के लिए भी जाने जाते हैं। च्जितना कमाते हैं उससे घर चलाएं या गैस भरवाएं!
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