उप्र में तकरीबन 54 प्रतिशत अन्य पिछड़ा वर्ग की आबादी है। इसमें करीब 19 प्रतिशत यादव की आबादी बतायी जाती है। यादव वोट बैंक को सपा से बिखरने की रणनीति के तहत अखिलेश यादव ने अहीर रेजीमेंट का दांव खेला है। लेकिन, सपा की यह चाल उस पर भारी पड़ रही है। ओबीसी की अन्य जातियों में सपा की इस घोषणा का विरोध शुरू हो गया है।
भीम आर्मी के प्रमुख चंद्रशेखर लंबे से समय से चमार रेजीमेंट को बहाल करने की मांग करते रहे हैं। चुनाव के समय यह मांग उठाकर वह जाटव यानी चमार जाति को अपने पक्ष में लामबंद करने की कोशिश में हैं। बसपा सुप्रीमो मायावती की भी जाटव वोटबैंक पर काफी पकड़ है। शायद इसलिए मायावती जाति आधारित रेजीमेंट के बयान पर चुप्पी साधे हैं।
सपा और भीम आर्मी की इस मांग पर समाजशास्त्री अरविंद चांडक का कहना है कि अखिलेश और चंद्रशेखर दोनों अपने को अंबेडकर और लोहिया का अनुयायी कहते हैं। लेकिन उनकी मांग से डॉ. भीमराव अंबेडकर और डॉ. राम मनोहर लोहिया के जातीय भेदभाव खत्म करने और जाति-व्यवस्था के उन्मूलन के सिद्धांत को झटका लगा है।
वरिष्ठ पत्रकार महेश पांडेय का कहना है कि उप्र की राजनीति में जातियां ही राज करती रही हैं। इसीलिए सपा ने यादव मतदाताओं को रिझाने के लिए समाजवादी पार्टी ने अपने चुनाव का घोषणा पत्र में अहीर बख्तरबंद रेजीमेंट बनाने का वादा किया है। समाजवादी पार्टी पर पहले भी किसी खास जाति का दल होने का आरोप लगता रहा है। अब पार्टी ने अहीर रेजीमेंट की बात करके अन्य जातियों को नाराज करने का काम किया है।
दलित नेता के अवधेश वर्मा के मुताबिक भीम आर्मी के चीफ चंद्रशेखर की मांग जायज है। क्योंकि एक मार्च 1943 को मेरठ छावनी में चमार रेजीमेंट स्थापित की गई थी। उस समय ब्रिटिश इंडियन आर्मी में महार रेजीमेंट ,रामदसिया रेजीमेंट और चमार रेजीमेंट थीं, जिनमें दलितों की ही भर्तियां होती थीं। द्वितीय विश्व युद्ध में चमार रेजीमेंट के कुल 42 जवान शहीद हुए थे। चमार रेजीमेंट की फर्स्ट बटालियन को बैटल ऑनर ऑफ कोहिमा अवार्ड भी दिया गया था। 1946 में इस रेजीमेंट को भंग कर दिया गया था।
अंग्रेजों के समय में जाति और समुदायों के नाम पर बनी तमाम रेजीमेंट भारतीय सेना में अब भी मौजूद हैं। इनमें राजपूताना रेजीमेंट, गोरखा रेजीमेंट आदि प्रमुख हैं। कई रेजीमेंट में अहीर कंपनियां हैं।