छऊ नृत्य में सुख और दुख
आक्रामकता, आत्मसमर्पण, खुशी और दु:ख जैसे विभिन्न भाव जुड़े हैं प्राचीन लोक नृत्य छऊ से। इसमें मार्शल आर्ट, अर्ध शास्त्रीय नृत्य, कलाबाजी और कहानी सबकुछ है। अपनी उत्कृष्ट शैली के चलते इस नृत्य ने देश ही नहीं विदेश के रंगमंच पर भी अपनी छाप छोड़ी है। इसमें नर्तक विभिन्न लोक, पौराणिक कथाओं रामायण और महाभारत के प्रकरण को नृत्य के जरिए प्रस्तुत करते हैं
जुड़े हैं आक्रामकता, आत्मसमर्पण, खुशी और दु:ख जैसे विभिन्न भाव
रवीन्द्र राय
कोलकाता. आक्रामकता, आत्मसमर्पण, खुशी और दु:ख जैसे विभिन्न भाव जुड़े हैं प्राचीन लोक नृत्य छऊ से। इसमें मार्शल आर्ट, अर्ध शास्त्रीय नृत्य, कलाबाजी और कहानी सबकुछ है। अपनी उत्कृष्ट शैली के चलते इस नृत्य ने देश ही नहीं विदेश के रंगमंच पर भी अपनी छाप छोड़ी है। इसमें नर्तक विभिन्न लोक, पौराणिक कथाओं रामायण और महाभारत के प्रकरण को नृत्य के जरिए प्रस्तुत करते हैं। देश में सबसे प्रसिद्ध नृत्य रूपों में से एक इस नृत्य में बिना कुछ बोले सिर्फ भावभंगिमा से कला प्रदर्शित करने की शक्ति है। इस लोकनृत्य को दुनिया के सामने लाने वालों में पश्चिम बंगाल के पुरुलिया के बेलगारा गांव के मशहूर छऊ नर्तक धनंजय महतो भी शामिल हैं, जिनका कुछ माह पहले 85 वर्ष की उम्र में निधन हो गया। पुरुलिया जिले में ही छऊ और झूमर के करीब 30 हजार कलाकार हैं।
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ऐसे हुई शुरुआत
करीब 250-300 वर्ष पुरानी इस नृत्य शैली की उत्पत्ति युद्ध प्रथाओं से हुई है। कुछ का मानना है कि छऊ संस्कृत शब्द छैया या छाया से आया है तो कुछ का मानना है कि पहले राजा की छावनी में यह नृत्य होता था, इसलिए इसका नाम छऊ नृत्य पड़ा। छद्मवेश इसकी दूसरी सामान्य व्याख्या है।
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नृत्य की तीन शैली
परम्परा और संस्कृति से जुड़े इस नृत्य की तीन शैली-सरायकेला, पुरुलिया और मयूरभंज है। झारखंड के सरायकेला और पश्चिम बंगाल के पुरुलिया की शैली में मुखौटा अनिवार्य है, जबकि ओडिशा के मयूरभंज में नहीं। नर्तकों की वेशभूषा और विविधता काफी हद तक उनके द्वारा चित्रित पात्रों पर निर्भर करती है।
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मुखौटे का इस्तेमाल
छऊ नृत्य कलाकार देवाशीष दास के मुताबिक विभिन्न भाव को दर्शाने के लिए कलाकार मुखौटे का इस्तेमाल करते हैं। मुखौटे आमतौर पर मिट्टी और कागज से बने होते हैं। कलाकारों के मुखौटे की भाव भंगिमा विभिन्न भाव को दिखाती है, जबकि कंधे और छाती की हरकतें खुशी, अवसाद और साहस आदि को दर्शाती हैं। हवा में कूदना आक्रमण या गुस्से का संकेत है।
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चुस्त और फुर्तीले होते कलाकार
यह नृत्य आसान नहीं है, क्योंकि भारी मुखौटा पहनना पड़ता है। आमतौर पर कलाकार शारीरिक रूप से मजबूत, चुस्त और फुर्तीले होते हैं। उनको अपनी सांसों पर बेहतर तरीके से नियंत्रण करना पड़ता है। छऊ नृत्य की ज्यादातर धुनें पारम्परिक और लोक हैं। देसी वाद्ययंत्रों धम्सा, शहनाई तथा अन्य का उपयोग होता है।
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नृत्य का आयोजन
गंधर्व कला संगम द पल्स ऑफ इंडिया के अंतर्गत स्पंदन से जुड़ी सास्वती चटर्जी ने बताया कि पहले यह नृत्य गांव में मांगलिक, धार्मिक अवसर पर शुरू हुआ, फिर सार्वजनिक स्थानों पर आयोजन होने लगा। भाव भंगिमाओं और नृत्य का मिश्रण कर कलाकार दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर देते हैं।
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चुनाव बना वरदान
अस्तित्व बचाने के लिए संघर्षरत छऊ कलाकारों के लिए हाल में राज्य में सम्पन्न विधानसभा चुनाव वरदान साबित हुआ। विभिन्न राजनीतिक दलों ने रोड शो और रैली के दौरान छऊ नृत्य का आयोजन किया। लॉकडाउन की मार झेल रहे कलाकारों को कमाई का जरिया मिला। कोरोना से थमे कलाकारों के कदमों को गति मिली।
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