प्रवीण ने बताया कि भोपा जाति के लोग प्राचीन समय से रावणहत्थे के साथ अपने गीत-संगीत का जादू बिखेरते आए हैं। लेकिन फ्यूजन और मॉडर्न संगीत की भीड़ में वे कहीं खो जाने लगे हैं। म्यूजिक कॉन्सर्ट आदि आयोजनों में भी राजस्थान के अन्य संगीत व वाद्ययंत्रों को अच्छी पहचान मिल जाती है। वहीं रावणहत्थे का प्रयोग हाशिए पर आने लगा है। इसे बनाने और गाने वालों की संख्या भी दिनोंदिन कम होने लगी है। ऐसे में युवा पीढ़ी का
ध्यान आकर्षित करने और लोगों को इस संस्कृति से जोडऩे की भावना के चलते उन्होंने एक बड़े रावणहत्थे को बनाने की ठानी और भाकरासनी गांव स्थित भोपों के परिवारों के साथ मिलकर इसे मूर्त रूप दिया।
कम होने लगी है भोपों की संख्या उनके इस कार्य में गांव के सुगनाराम, शिवपाल राम, मनवरी और अमरीका की प्रोफेसर सिंडी गोल्ड ने सहयोग किया। दिन-रात की मेहनत और वाद्ययंत्र बनाने की बारिकी से जुड़े तथ्यों को ध्यान में रखकर इसका निर्माण किया गया है। एक साधारण रावणहत्थे में 7 से 14 तक तार होते हैं लेकिन इसमें 35 तारों को जोड़ा गया है। इसे बनाने में लगभग दो सप्ताह का समय लगा। प्रवीण ने बताया कि पुराने समय से भोपे पाबूजी की फड़ का गायन करते आए हैं। अब पशु पालने वाले परिवारों की संख्या में कमी आने से इस जाति ने भी अन्य व्यवसायों की ओर रुख कर लिया है। इससे आज इस कला के जानकार गिनती के रह गए हैं।
रावणहत्था की कहानी
वाद्ययंत्र की जानकारी रखने वालों ने बताया कि सीताहरण से पूर्व लंकापति रावण ने इसे बनाया था। जब रावण सीता का हरण करने साधु वेश में आया तो उसके पास किसी प्रकार का वाद्ययंत्र नहीं था। जो अकसर साधुओं के पास होता है। ऐसे में रावण ने अपने हाथ से ही इसका निर्माण किया और इससे इसका नाम मिला रावण हत्था।