दरअसल, श्राद्ध पक्ष में लोग अपने दिवंगत पूर्वजों को याद करते हुए उन्हें भोजन कराते हैं। इसके लिए कौओं के आगे विभिन्न व्यंजनों से भरी थाली रखी जाती है। थाली में कौए के चोंच लगाने के बाद ही घर के अन्य सदस्य भोजन करते हैं। इसके लिए लोग सुबह-सुबह ही घरों की मुंडेर पर विभिन्न तरह की मिठाई, दही और पानी रख कर कौहंस-कौहंस की आवाज लगाते हैं, ताकि कौआ आकर थाली में से कुछ खाए।
बदलते दौर में न तो अब घरों की मुंडेर पर कौए आ रहे हैं और न ही कौहंस-कौहंस की आवाज भी कभी-कभार ही सुनाई देती है। लिहाजा लोग मान्यतानुसार पितरों को भोजन कराने के लिए बगीचों की तरफ जाने लगे हैं। दरअसल, शहरी क्षेत्र में पेड़ों की कटाई होने के कारण कौवे दूर चले गए हैं। बगीचों में कौवों की संख्या फिर भी दिखाई पड़ जाती है। इस वजह से पितरों को भोजन कराने के लिए बगीचों का सहारा लिया जाने लगा है।
व्यंजनों की सज रही थाली
पितरों को भोजन कराने की परंपरा के चलते थालियों में विशेष रूप से मिठाई, दही, कचौरी, चावल के साथ ही खीर-पूरी परोसी जाती है। साथ ही पानी की एक गिलास रखी जाती है। परंपरानुसार पितृ पक्ष पखवाड़े में पन्द्रह दिनों तक सुबह-सुबह लोग पितरों को भोजन करा कर तृप्त करने के बाद ही स्वयं भोजन ग्रहण करते हैं।
चोंच भरने का करते हैं इंतजार
खाद्य सामग्री से भरी थाली में जब तक कोई कौआ आकर चोंच नहीं लगाता है, तब तक लोग घर जाने का इंतजार करते हैं। कई लोग अल सुबह ही थाली लेकर बगीचों में पहुंच जाते हैं। उस समय कौओं की संख्या भी अधिक होती है, जो भोजन के लिए अपने घौंसलों से निकलते हैं। देरी से जाने वाले लोगों को काफी देर तक कौवे के भोजन में चोंच मारने का इंतजार करना पड़ता है। जिन पेड़ों पर कौए अपने घोंसले बनाते थे, उन पेड़ों की अंधाधुंध कटाई के कारण उनका आशियाना तेजी से खत्म हो गया। इसके अलावा परम्परागत भोजन की कमी के कारण यह अक्सर केरू डम्पिंग स्टेशन अथवा अस्पतालों में जूठन खाते दिखाई देते हैं।
जोधपुर शहर में कोयल की संख्या में बढ़ोतरी भी एक प्रमुख कारण है, जो पेड़ों पर कौओं के घोंसलों में अंडे नष्टकर अपने अंडे दे देती हैं।
- डॉ. अनिल कुमार छंगाणी, पक्षी विशेषज्ञ एवं पर्यावरणविद्