शीतला माता मंदिर के पुजारी विश्वनाथ पाराशर ने बताया कि महाराणा भोपालसिंह के दादा ने राजस्थान के हर जिले में मंदिर बनवाए। इस मंदिर की सेवा पहले लाला परिवार करते आ रहे थे लेकिन पांच पीढियों से उनका परिवार सेवा कर रहा है। शीतला अष्टमी को मंदिर में चढऩे वाली सामग्री का अधिकार आसपास के कुम्हारों का होता है। यह वर्षेां पुरानी परम्परा है।
पाराशर ने बताया कि शहर में एक मात्र शीतला माता का मंदिर है, जो भीलवाड़ा की नींव रखने के साथ ही बना था। मंदिर में शीतला माता की पूजा मंगलवार मध्य रात्रि से शुरू होगी। पूजा बुधवार सुबह तक चलेगी। इसकी रोशनी व गिट्टी की व्यवस्था नगर परिषद की ओर से की जाती है। वैशाख में महिलाएं यहां अपने घर से बिना चप्पल के मंदिर आती तथा जल से अभिषेक करती है।
पंडित अशोक व्यास ने बताया कि शीतला माता की पूजा एवं व्रत से चिकन पॉक्स यानी माता, खसरा, फोड़े, नेत्र रोग नहीं होते हैं। अष्टमी के दिन महिलाएं शीतला माता की पूजा के बाद एक दिन पहले बनाए भोजन का भोग लगाती हैं।
घरों में नहीं जलता चूल्हा
शीतला सप्तमी, शीतला सातम, शीतला अष्टमी, ठंडा-बासी, बास्योड़ा और कई नामों से जाने वाले इस अनूठे त्योहार के दिन घरों में चूल्हा नहीं जलाया जाता है। शीतला माता की पूजा-अर्चना का यह त्योहार हमारे खान-पान को मौसमानुकूल करने की परंपरा के पालन के लिए है। शीतला अष्टमी की तैयारी एक दिन पहले से की जाती है। इसके लिए घरों में तरह-तरह के भोजन व व्यंजन बनाने की परंपरा है। दही इस दिन के नेवैद्य का मुख्य पदार्थ होता है। अष्टमी की पूजा करने वाले परिवारों में सप्तमी की शाम को मीठे चावल, कढ़ी, पकौड़ी, बेसन चक्की, पुए, पूरी, रोटी व सब्जी आदि बनाई जाती है। ठंडा भोजन खाने के पीछे भी एक धार्मिक मान्यता है कि माता शीतला को शीतल व ठंडा व्यंजन पसंद है।