फरवरी 1527 ई. में खानवा के युद्ध से पूर्व बयाना के युद्ध में राणा सांगा ने मुगल सम्राट बाबर की सेना को परास्त कर बयाना का किला जीता। इस युद्ध में राणा सांगा के कहने पर राजपूत राजाओं ने पाती पेरवन परम्परा का निर्वाहन किया। बयाना के युद्ध के पश्चात 17 मार्च, 1527 ई. में खानवा के मैदान में ही राणा साांगा जब घायल हो गए थे तब उन्हें बाहर निकलने में कछवाह वंश के पृथ्वीराज कछवाह ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई तथा पृथ्वीराज कछवाह द्वारा ही राणा सांगा को घायल अवस्था में काल्पी (मेवाड़) नामक स्थान पर पहुंचाने में मदद दी गई। लेकिन असंतुष्ट सरदारों ने इसी स्थान पर राणा सांगा को जहर दे दिया। ऐसी अवस्था में राणा सांगा पुन: बसवा आए जहा सांगा की 30 जनवरी, 1528 को मृत्यु हो गयी। लेकिन राणा सांगा का विधि विधान से अन्तिम संस्कार माण्डलगढ (भीलवाड़ा) में हुआ। इतिहासकारों के अनुसार उनके दाह संस्कार स्थल पर एक छतरी बनाई गई थी। ऐसा भी कहा जाता है कि वे मांडलगढ़ क्षेत्र में मुगल सेना पर तलवार से गरजे थे। युद्ध में महाराणा का सिर अलग होने के बाद भी उनका धड़ लड़ता हुआ वीरगति को प्राप्त हुआ।
शरीर पर थे अनगिनत घाव, फिर भी दिखाया अदम्य साहस
राणा सांगा अदम्य साहसी थे। एक भुजा, एक आंख खोने व अनगिनत ज़ख्मों के बावजूद उन्होंने अपना धेर्य और पराक्रम नहीं खोया। सुलतान मोहम्मद शासक माण्डु को युद्ध में हराने व बन्दी बनाने के बाद उन्हें उनका राज्य पुन: उदारता के साथ सौंप भी दिया, यह उनकी महानता और बहादुरी को दर्शाता है।
सिर कटा लेकिन धड़ लड़ता रहा
एक विश्वासघाती के कारण वह बाबर से युद्ध जरूर हारे, लेकिन उन्होंने अपने शौर्य से दूसरों को प्रेरित किया। इनके शासनकाल में मेवाड़ अपनी समृद्धि की सर्वोच्च ऊंचाई पर था। एक आदर्श राजा की तरह सांगा ने अपने राज्य की रक्षा तथा उन्नति की। सांगा ने मुगलों के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी। वे मांडलगढ़ क्षेत्र में मुगल सेना पर तलवार से गरजे थे। कहते हैं कि युद्ध में महाराणा का सिर माण्डलगढ़ (भीलवाड़ा) की धरती पर गिरा, लेकिन घुड़सवार धड़ लड़ता हुआ चावण्डिया तालाब के पास वीरगति को प्राप्त हुआ।