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जबलपुर

नवरात्रि-  ये माता देती हैं संतान, अब तक कोई नहीं गया खली हाथ

1928 में संत की वचन पर की गई थी मां दुर्गा की मूर्ति की स्थापना,हुई थी पूरी मनोकामना, 88 साल पहले दमोह में विराजित हुई मां की पहली प्रतिमा, आज भी उसी परंपरा का हो रहा निर्वहन

जबलपुरOct 05, 2016 / 12:15 pm

praveen chaturvadi

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संवेद जैन@ दमोह। ब्रिटिश शासनकाल में जब लोगों को त्यौहार मनाने के लिए भी अंग्रेजी हुकुमत के सामने नतमस्तक होना पड़ता था। इसी दौरान 1928 में दमोह में पहली बार नवरात्र के दौरान मां दुर्गा की प्रतिमा स्थानीय मोरगंज गल्लामंडी में विराजमान की गई थी। तब से शुरू हुई यह परंपरा आज भी मोरगंज में देखने मिलती है। जहां 88 साल बाद भी न तो स्थान परिवर्तन हुआ और न ही माता का स्वरूप। 

मोरगंज से शुरू हुई इस परंपरा के बाद लगातार इसका निर्वहन दो पीढिय़ों द्वारा किया जा रहा है। यहां मौजूदा समय के दौरान आकर्षक साज-सज्जा और रोशनी तो देखने नहीं मिलती है, लेकिन मान्यता है कि आज भी नवरात्र के दौरान यहां पहुंचने वाले भक्त ही मनोकामना खाली नहीं जाती है। 

संतान प्राप्ति के लिए किया था उपाय
मोरगंज गल्ला मंडी दुर्गोत्सव समिति से जुड़े रघुवीर गुप्ता बताते है कि 1928 में यहां के धवल बजाज द्वारा पहली बार मां दुर्गा की प्रतिमा स्थापना कराई गई थी। जिसमें सभी का सहयोग लिया गया था। इसके पीछे जो कारण बताया है उसमें धवल बजाज को संतान प्राप्ति न होना है। उन्होंने बताया कि पचास की उम्र के पास पहुंचने के बाद भी बजाज के घर संतान प्राप्ति नहीं हुई थी। जिस पर एक संत ने उन्हें देवी प्रतिमा नवरात्र में विराजमान करने कहा था। इसके बाद ही देवीजी की स्थापना की गई थी और अगले ही वर्ष बजाज के घर संतान प्राप्ति हुई थी। इसके बाद से ही यहां के आड़तियां, व्यापारी, मुनीमों ने हर साल देवी प्रतिमा स्थापना करने का निर्णय लिया था।

88 साल से है परंपरा जारी
समिति के भरत गुप्ता ने बताया कि 1928 के बाद से अब तक हमारे पूर्वज और अब हम इस परंपरा का निर्वहन करते आ रहे है। पुराने ही रीति रिवाज से यहां मां दुर्गा विराजमान की जा रही है। 1928 में जिस स्थान पर मां विराजित हुईं थीं, उसी स्थान पर आज भी पंडाल है। माता का स्वरूप भी वहीं है। आज भी 10 ब्राह्मणों द्वारा नौ दिन तक लगातर शतचंडी के पाठ किए जाते है। 9 दिनों तक कन्याभोज और सुहागले भी यहां चल रही हैं। नवरात्र के दौरान यहां सांस्कृतिक कार्यक्रमों से दूर रहकर परंपरा और पूजा पाठ का विशेष ध्यान दिया जाता है। जिसमें सभी सहभागिता निभाते है। 

अखाड़े की भी हुई थी शुरुआत
समिति के श्याम अग्रवाल, हरिनारायण गुप्ता बताते है मां की आराधना को जोश उस समय काफी हो गया था। तीन साल बाद ही 1931 में अखाड़े की स्थापना की गई। जिसके प्रथम गुरु रामनाथ गुप्ता और खलीफा राधेश्याम गुप्ता रहे। अखाड़े में तरह-तरह के प्रदर्शन और हथियारों को चलाना सिखाया गया, जो उस समय लोगों की आत्मरक्षा के काम भी आया। यहां का अखाड़ा आज भी प्रसिद्ध माना जाता है। जिसमें हर उम्र के साथी तरह-तरह के औजारों के साथ खेलते है और हैरतअंगेज प्रदर्शन करते है। नागपंचमी से ही इसकी तैयारियां शुरू हो जाती है। आज भी मोरगंज के अखाड़े को देखने लोगों में उत्सुकता देखी जाती है।


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