राजकमल सर्कस के रफीक शेख कहते हैं, कई कलाकार और कर्मचारी तीन दशकों से अधिक समय से हमारे साथ जुड़े हुए हैं। पर्दे के पीछे कोई आकर्षण नहीं हालांकि बाहरी दुनिया के लिए यह चमक-दमक, संतुलन और रोमांच है, लेकिन कलाकारों के लिए पर्दे के पीछे का जीवन आसान नहीं है। तीन दशक पहले तक देश में कई सर्कस थे और उनमें से लगभग सभी फायदे में थे। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में जानवरों पर प्रतिबंध और श्रम पर सख्त आदेश जैसी सरकारी नीतियों ने उद्योग को गंभीर झटका दिया है। निराशाजनक बात यह है कि सरकार ने घरेलू और पालतू जानवरों के उपयोग पर भी प्रतिबंध लगा दिया है। लेकिन उन्हीं जानवरों को अन्य सार्वजनिक कार्यक्रमों में इस्तेमाल करने की अनुमति है। घोड़ों का उपयोग शादियों में किया जाता है, बैल का उपयोग पारंपरिक दौड़ में किया जाता है, कुत्ते मनुष्य के पसंदीदा पालतू जानवर हैं और ऊंट का उपयोग विभिन्न व्यावसायिक और घरेलू कार्यों के लिए किया जाता है। लेकिन उन्हीं जानवरों को सर्कस में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता।
शेख कहते हैं, सरकार को हमें कम से कम घरेलू जानवरों का उपयोग करने की अनुमति देनी चाहिए। वह यह भी नहीं समझ पा रहे हैं कि बच्चों को सर्कस में प्रदर्शन करने की अनुमति क्यों नहीं दी जानी चाहिए, जबकि उन्हें फिल्मों और लाइव शो में बाल कलाकार के रूप में दिखाया जाता है। उन्होंने आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा, जब फिल्मों में अभिनय करने वाले बच्चों को कलाकार माना जाता है, तो सर्कस में प्रदर्शन करने वाले बच्चों पर भी यही मानदंड क्यों नहीं लागू किया जाता है। रूस जैसे देशों ने बच्चों को कलाबाज़ी सिखाने के लिए अकादमियां खोली हैं। ऐसे कई कलाकारों को बाद में ओलंपिक जैसे अंतरराष्ट्रीय आयोजनों में जिम्नास्टिक में भाग लेने के लिए चुना जाता है। छोटे बच्चों को कलाबाजी के लिए इसलिए चुना जाता है क्योंकि उन्हें कम उम्र में प्रशिक्षित करना आसान होता है क्योंकि उनकी हड्डियां और मांसपेशियां लचीली होती हैं। उस उम्र में प्रशिक्षित होकर वे जिमनास्ट और कलाबाज़ बन जाते हैं। रूस ऐसे बच्चों को बाल मजदूर नहीं बल्कि कलाकार मानता है। लेकिन भारत में कहानी बिल्कुल अलग है. यहां, गैराज या सर्कस में काम करने वाले लड़के को मूलभूत अंतर समझे बिना बाल मजदूर की श्रेणी में रखा जाता है।