लेकिन इस बार ज्योतिरादित्य सिंधिया बीजेपी के उम्मीदवार केपी यादव से चुनाव हार गए हैं। हार की मार्जिन भी बहुत बड़ी है। कभी दो लाख से ज्यादा वोटों से चुनाव जीतने वाले सिंधिया अपने करीबी रहे केपी यादव से एक लाख वोटों से चुनाव हार गए हैं। मध्यप्रदेश में बीजेपी के लिए यह जीत सबसे बड़ी मानी जा रही है।
विजयाराजे सिंधिया लड़ीं चुनाव
1957 में इस सीट से विजयाराजे सिंधिया ने कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ा था और हिंदू महासभा के विष्णूपंत देशपांडे को चुनाव हराई थी। उसके बाद 1971 में विजयाराजे के बेटे माधवराव सिंधिया यहां से जनसंघ के टिकट पर चुनाव जीते। 1977 में माधवराव यहां से निर्दलीय चुनाव लड़े फिर भी वो जीत गए। 1980 में माधवराव सिंधिया कांग्रेस की टिकट पर यहां से फिर चुनाव लड़ा। माधवराव सिंधिया की मौत के बाद 2002 में हुए उपचुनाव में ज्योतिरादित्य सिंधिया चुनाव जीते। उसके बाद से वे लगातार चुनाव जीतते आए हैं। पहली बार 2019 में इस सीट से सिंधिया परिवार के किसी सदस्य की हार हुई है।
ऐसे में यह सवाल उठ रहा है कि आखिर सिंधिया परिवार के इस किले को कैसे बीजेपी भेदने में कामयाब हो गई। सिंधिया के खिलाफ बीजेपी ने केपी यादव को मैदान में उतारा था। केपी कभी गुना में ज्योतिरादित्य का सांसद प्रतिनिधि रहे हैं। मुंगावली से केपी यादव विधानसभा चुनाव भी लड़े थे लेकिन वे कांग्रेस उम्मीदवार से हार गए थे। मगर लोकसभा चुनाव जीतने में कामयाब हुए।
बीजेपी उम्मीदवार ने ग्रामीण वोटरों तक अपनी पहुंच बढ़ाई और इस बार उसमें सेंधमारी करने में कामयाब हो गए। क्योंकि ज्योतिरादित्य हर चुनाव में शहरी इलाकों में पिछड़ते थे। साथ ही केपी को ज्योतिरादित्य के करीबी होने का भी फायदा मिला। केपी सिंधिया के साथ बहुत दिनों तक काम किए हैं, इसलिए उनके रणनीति से वाकिफ रहे हैं। शायद सिंधिया को मात देने में यही मजबूत प्वाइंट उनका कारगर साबित हुआ है।
शिवराज सिंह चौहान ने यहां प्रचार के दौरान कहा था कि घर का भेदी लंका ढाहे। उन्होंने इस शब्द का प्रयोग इसलिए किया था कि केपी सिंधिया के करीबी थे। उन्होंने केपी यादव की तुलना विभीषण से भी की थी।
शिवराज सिंह चौहान ने वहां प्रचार के दौरान कहा था कि घर का भेदी लंका ढाहे। उन्होंने इस शब्द का प्रयोग इसलिए किया था कि केपी सिंधिया के करीबी थे। उन्होंने केपी यादव की तुलना विभीषण से भी की थी।
वहीं, ज्योतिरादित्य सिंधिया पार्टी के अंदरुनी राजनीति की वजह से भी वहां कमजोर हुए। क्योंकि विधानसभा चुनाव नतीजों के बाद वह मध्यप्रदेश कांग्रेस की राजनीति में अलग-थलग पड़ गए थे। लोकसभा चुनावों के दौरान उन्हें पश्चिमी यूपी का प्रभारी बनाकर भेज दिया गया था।