दरअसल, रोजा सिर्फ इबादत और अल्लाह को खुश करने का तरीका भर नहीं है। यह इंसान को सही मायने में इंसानियत के ढांचे में ढालता है। इंसान को अल्लाह (ईश्वर) ने अशरफुल मखलूकात (सर्वश्रेष्ट प्राणी) अर्थात सारे प्राणियों में सर्वोत्तम बनाया है। रोजा एक-दूसरों के दुख दर्द को समझने एवं मदद करने के लिए प्रेरित कर मानव कल्याण की अवधरण को साकार रूप देता है। समाजशास्त्र की दृष्टि से देखें तो यह सहभागी अवलोकन के सिद्धांत (किसी समाज विषेश के दु:ख दर्द एवं परेशानियों को समझने के लिए उनके साथ उनके जैसी ही जिन्दगी गुजारना होगा। तभी उनकी परेशानियों से भलिभांति परिचित हो कर उनका उपचार किया जा सकता है) का प्रयोगिक रूप है। सर्वप्रथम मुसलमानों को रोजा रखकर भूख की सिद्दत को समझने का मौका दिया जाता है कि यह महसूस करो कि तुम्हारे वह भाई जो गरीब हैं, जिनके पास दो जून की रोटी नहीं होती है। उनका दु:ख-दर्द कैसा होता होगा? इसके बाद मुसलमानों को यह आदेश दिया गया कि यदि इस महीने में अपने माल का जकात (विशेष दान) अर्थात आवश्यकता से अधिक धन का ढ़ाई प्रतिशत दान में गरीबों को दोगे तो इसका पुण्य सत्तर गुना बढ़ा दिया जायेगा। इसका सिर्फ एक ही कारण है कि मुसलमान इस महीने में खुद भूख: की ताब झेलते हैं। अत: दूसरों के दु:खों को महसूस कर उनकी मदद आवश्य करेंगे। यही वजह है कि इस महीने में मस्जिदों में इफ्तार के वक्त पकवानों, फलों एवं अन्य खाद्य सामग्री की ढ़ेर लग जाती है। जहां बड़े-छोट, अमीर-गरीब सभी एक कतार में बैठकर बिना किसी भेदभाव के एक ही दस्तरखान में खाते हैं। इस महीने में अमीर मुसलमान बड़ी संख्या में गरीबों को जकात और सदका-ए-फित्र (विशेष दान) देते हैं, जिस के कारण रमजान के बाद मनाई जाने वाली ईद अमीरों के साथ-साथ गरीबों के लिए भी खूशी का दिन होता है। इस प्रकार रोजा मूल्यपरक जीवन जीने का प्रशिक्षण शिविर का काम करता है।
रमजान का पाक महीना शुरू होते ही मस्जिदों में इबादत की हलचल व तिलावत-ए-कुरआन शरीफ गूंजने लगती है। रोजे की पवित्रता से लोगों के मन इस कद्र पाक हो जाता है कि शाम होते ही रोजेदार रंग-बिरंगी टोपियॉ लगा कर अमीर-गरीब एवं छाटे-बड़े का भेद-भाव भूलकर एक साथ रोजा खोलने के लिए जमा होते हैं। ये नजारा इतना मनमोहक होता है, जिसे देखकर ऐसा लगता कि मानो अल्लाह ने खुद अपने हाथों से किसी बाग़ में रंग-बिरंगे फूलों को सजाया हो, जिसे देखकर दूसरे भी शन्ति का आभासकर आनंदित होते हैं।
स्वास्थ्य लाभ:
आधुनिक मेडिकल साईंस बताती है कि कभी-कभी कुछ समय अंतराल के बाद खाना-पीना बंद करके अपने पाचन क्रिया, जिस पर पूरे शरीर का स्वास्थ्य निर्भर करता है को खाली रख कर आराम दिया जाना चाहिए, क्योंकि ऐसा करने से पेट में मौजूद व्यर्थ पदार्थ जल कर साफ हो जाता है, जिससे पाचन क्रिया पुन: सही तरीके से कार्य करने लगता है। जर्मनी, इंग्लैण्ड और अमेरिका के माहिर डॉक्टरों की एक टीम रमजान के अवसर पर इस बात की पड़ताल करने के लिए आई कि रमजान में मुसलमानों के कान,नाक, मुंह एवं गले की बिमारी कम हो जाती है। इस के परीक्षण के लिए उन्होंने पाकिस्तान के तीन शहरों करांची, लाहौर एवं फैसलाबाद का चुनाव किया। इस सर्वे के बाद उन्होंने जो रिपोर्ट पेश की उसका खुलासा था, चूंकि रमजान में मुसलमान पाबंदी के साथ नमाज पढ़ंते हैं और इससे पहले वजू अर्थात नमाज से पूर्व हाथ,पांव, मुंह, गला एवं नाक की सफाई करने से नाक, कान, गले की बिमारी कम हो जाती है। खाना कम खाने से मेंदे एवं जिगर की बिमारियां कम हो जाती हैं। चूकि मुसलमान रमजान में डाईटिंग करते हैं, इसलिए वह दिल की बिमारी के शिकार भी कम होते हैं। (दैनिक उर्दू जंग, पाकिस्तान 1988) इस्लाम धर्म किसी इनसान पर उसकी ताकत से ज्यादा बोझ डालने के खिलाफ है। यही कारण है कि बीमार, मुसाफिर, बूढ़े, गर्भवती एवं दूध पिलाने वाली महिलाओं एवं बच्चों पर रोजा रखने की बंदिश नहीं है, जिसे आधुनिक मेडिकल साईंस भी सराहता है।
मनोवैज्ञानिक लाभ:
कुरआन शरीफ में अल्लाह तआला फरमाता है कि रोजे रखवाने का मकसद तुम्हें भूखा रखना नहीं है, बल्कि तुम्हें रोजा रखने का हुक्म इसलिए दिया गया है, ताकि तुम अपनी नफ्स (इन्द्रियों) पर काबू पाकर परहेजगार बन सको। आमतौर पर दिनभर कुछ न खाने पीने को रोजा समझा जाता है। लेकिन रोजे का अर्थ इससे अधिक व्यापक है। रोजे में शरीर के अलग अलग अंगों का रोजा इस प्रकार है। पेट को खाने एवं पीने से, कान को गलत बातों के सुनने से, ज़बान को झूठ, किसी के पीठ पीछे बुराई करने से एवं दूसरों के दिल दुखाने वाले गलत शब्दों के प्रयोग से, आंखों को गलत चीजों एवं किसी की मां, बहन एवं बेटी को गलत निगाह से देखने से, हाथों को किसी को नुकसान पहुंचाने से रोकना, पांव को किसी को नुकसान पहुंचाने एवं गलत रास्ते पर चलने से बचाना और दिल का रोजा गलत इरादों से बचकर जिक्र (ईश्वर की तपस्या) करना है।
रोजेदार के घर में जब सब कुछ होता है और उन्हें कोई रोकने-टोकने एवं देखने वाला नहीं होता है, तब भी वह मानता हैं कि ईश्वर मुझे देख रहा है और ऐसा मानकर वे भूख एवं प्यास की परेशानी तो झेलते हैं पर छुप कर कुछ खाते-पीते नहीं हैं। रोजे को समझकर रखने के कारण ईश्वर के प्रति मुसलमानों की आस्था मनोवैज्ञानिक रूप से इस कद्र मजबूत हो जाती है कि आम दिनों में भी कोई ऐसा कार्य जिसे धर्म में मना किया गया हो दुनिया की कोई भी शक्ति या लालच करने के लिए बाध्य नहीं कर पाती है। उनके विश्वाश का यह हाल होता है कि मरने की नौबत आने पर भी बुरे कार्यों में संलिप्त नहीं होते हैं, क्योंकि वे मानते हैं कि यदि मैंने कोई ऐसा गलत कार्य कर लिया, जिसे अल्लाह (ईश्वर) ने मना किया है तो मैं उस के पास किस मुंह से जाऊंगा।
अन्य धर्म एवं महापुरुषों की दृष्टि में रोजा:
कुरआन शरीफ की सुरा-ए-बकरा की आयत नं. 22.23 में अल्लाह तआला फरमाता है कि ऐ मुसलमानों तुम पर रोजा फर्ज किया जाता है, जैसा कि तुम से पहले के कौमों पर भी रोजा फर्ज किया किया था, ताकि तुम्हारे अंदर परहेजगारी पैदा हो। यही कारण है कि हर धर्म में कहीं फास्ट के रूप में तो कहीं उपवास के रूप में रोजा मौजूद है और इस के सामाजिक एवं स्वास्थ लाभ को देखकर अनेक विद्वान भी समय-समय पर ऐसा करने के लिए कहते रहे हैं।
हरितक्रांति के प्रणेता पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री जब भारत के प्रधानमंत्री थे। उस समय भारत खाद्य समस्या का शिकार था। तब उन्होंने जय जवान, जय किसान के नारे के साथ एक बात और कही थी। वह यह कि हर सोमवार को उपवास रखो। यह उन्होंने किसी धार्मिक कारण से नहीं, वरन उपवास रखकर अनाज की बचन करने की गर्ज से कहा था। क्योंकि, इससे हमारे शरीर पर कोई बुरा असर भी नहीं पड़ता है और लाखों टन अनाज की बचत के साथ स्वास्थ लाभ भी होता है।
चीन के राष्ट्रपिता माओत्जेतुंग के सामने जब भूखमरी जैसी सामाजिक समस्या थी। तब उन्होंने अपने भाषण में इस बात पर जोर दिया था कि खूद खाना खाते हुए अपने पड़ोसी और देखने वालों को भी शामिल कर लिया करो। खूद भूखे रहकर भूखों का एहसास पैदा करो। जिसे इस्लाम धर्म के मानने वाले पिछले 1400 सालों से रोजे के रूप में निभाते आ रहे हैं।